Tuesday, November 20, 2012

शर्मसार क्यों न हो लोकतंत्र

शर्मसार क्यों न हो लोकतंत्र 

इस लोकतंत्र को शर्म नहीं आनी चाहिए कि, एक राज ठाकरे कुछ भी बोलकर निकल जाता है और किसी को कोई तकलीफ नहीं होती। इधर बाला साहेब के बारे में दो सामान्य युवतियों ने बिना किसी राजनैतिक मंशा के कुछ ​कहा और उन्हें जेल भेज दिया गया। क्यों लोकतंत्र पर अभिमान हो..और संविधान का अनुच्छेद क्रमांक 19 वें में 1 क को हटा क्यों नहीं दिया जाता जिसमें अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता की आजादी है। दरअसल नक्सली यदी इस लोकतंत्र का विरोध करते हैं। तो इसकी वजह क्या है यह नहीं पता..लेकिन चक्रव्यूह में नक्सली नेता का वह संवाद जरूर सच नजर आता है। मैं ऐसे लोकतंत्र पर विश्वास नहीं रखता जो गरीबों की इज्जत करना नहीं जानता..राजनैतिक पार्टीयों के सिपेसालार मंच पर डाग ​बार्किंग करते रहें..किसी को श्रीखंडी तो किसी को बार डांसर से लेकर औरंगजेब का नाती करार देदें किसी को आपत्ती नहीं होती। किसी को पत्नी पुरानी होने पर कामुकता का मजा नहीं आता है और यह बात सार्वजनिक तौर पर कहता है। लेकिन किसी को कोई दिक्कत नहीं । एक दलित यु​वति को इस देश में दबंग उठाकर ले जाते हैं..यौन शोषण हो जाता है पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं करती और। और महाराष्ट्र के मराठी तालिबानी पुलिस कुछ शिवसैनीकों के आरोप पर मामला दर्ज कर लेती है। एक देश एक कानून मगर सजा केवल गरीबों आदिवासीयों और कमजोर वर्ग के लिए...इसे लोकतंत्र कहते हैं। हम भारत के लोग हा हा हा ....

Wednesday, April 4, 2012

देंवताओं का फ्लैक्सीकरण

सबसे बड़ा धर्म मानवता का, सांई बाबा भी कहते थे, मानवता मतलब किसी मानव को पीड़ा न हो। होता पूरा उलट है, हर गुरूवार भक्तों की बढ़ती तादात और सड़क के बीचो—बीच निजी स्वार्थ से बनाए गए मंदिरों के कारण पूरा रास्ता जाम हो जाता है। एंबुलेंस निकलने की जगह भी नहीं होती तो मानवता भूल ही जाइए।
सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक जगह पर किसी भी तरह के मंदिर निर्माण पर पूरी तरह रोक लगा रखी है। इसके बाद भी इसे श्रद्धालुओं की भक्ती कहिए या दो कदम चलने में कामचोरी घर के पास वाले चौक पर ही पर्सनल मंदिर बनवाना है।
मंदिर भी बन गया, यहां तक ठीक, अब दान पेटी में अनाप शनाब चंदा आसपास फूल वाले, चप्पल स्टैंड,सायकल स्टैण्ड अगरबत्ती, नारियल की दुकान से लोगों को खासा रोजगार भी मिलता है लेकिन दुकान लगाने की परमीशन इस शर्त पर की जहां दुकान लगाया जा रहा है उस जगह के लिए रेंट देना होगा, गलत मत समझिए यह दुकानदार की स्वेच्छा से नहीं उन्हें स्थापीत करने वाले भक्तों की स्वेच्छा से देना होगा।
इन सबसे इतर बात दरअसल जो कहना चाहता हूं वह यह कि, देंवताओं के नाम पर हर चौक चौराहे मोहल्ले में तन गए फ्लैक्स। इसमें जितनी बड़ी नेताओं और प्रसाद वितरण के आर्गनाइजरों की फोटु होती है। उसका एक तिहाई छोटा सा भाग भगवान के लिए आरक्षित कर दिया जाता है। आर्गनाइजरों की विशालकाय हांथजोड़कर माथे में तिलक रंगी लाल सफेद तिनरंगी गमझे वाली फोटु। यह कुछ दिनों तक चिपके रहने के बाद फटकर लोगों के पैरो तले रौंदाए किसे परवाह। फ्लैक्स के निचे फलां पर्व की शुभकामनांए। हद तो तब हो गई जब हमारे बिलासपुर के एक नगर पंचायत के नेता ने चुनाव जितते ही सांई बाबा की भक्ती को भुनाने मंदिर निर्माण से लेकर पालकी यात्रा का प्रबंध कर दिया।
देश में आस्था के नाम पर राजनीति पहली बार नहीं। भगवान श्री राम को तो कुछ ने खुब फुटकर कराया है। बात महल भक्ति तक सीमित हो तो भी अच्छा था। इनकी आड़ में अपनी पब्लीसिटी का जो जाल फैलाया है यह घातक है। देंवताओं की भक्ति भारत में आम बात है उसका श्रेय लेने के लिए मची होड़ से आपत्ति है।
ईश्वर अपने भक्तों को सदबुद्धी दो कि आपका नाम लें, और लोगों को प्रेरणां भी दें, लेकिन आपके नाम पर अपनी पहचान बनाने का पब्लीसिटी गेम कहां तक जायज है।
सबसे बड़ा धर्म मानवता का, सांई बाबा भी कहते थे, मानवता मतलब किसी मानव को पीड़ा न हो। होता पूरा उलट है, हर गुरूवार भक्तों की बढ़ती तादात और सड़क के बीचो—बीच निजी स्वार्थ से बनाए गए मंदिरों के कारण पूरा रास्ता जाम हो जाता है। एंबुलेंस निकलने की जगह भी नहीं होती तो मानवता भूल ही जाइए।
सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक जगह पर किसी भी तरह के मंदिर निर्माण पर पूरी तरह रोक लगा रखी है। इसके बाद भी इसे श्रद्धालुओं की भक्ती कहिए या दो कदम चलने में कामचोरी घर के पास वाले चौक पर ही पर्सनल मंदिर बनवाना है।
मंदिर भी बन गया, यहां तक ठीक, अब दान पेटी में अनाप शनाब चंदा आसपास फूल वाले, चप्पल स्टैंड,सायकल स्टैण्ड अगरबत्ती, नारियल की दुकान से लोगों को खासा रोजगार भी मिलता है लेकिन दुकान लगाने की परमीशन इस शर्त पर की जहां दुकान लगाया जा रहा है उस जगह के लिए रेंट देना होगा, गलत मत समझिए यह दुकानदार की स्वेच्छा से नहीं उन्हें स्थापीत करने वाले भक्तों की स्वेच्छा से देना होगा।
इन सबसे इतर बात दरअसल जो कहना चाहता हूं वह यह कि, देंवताओं के नाम पर हर चौक चौराहे मोहल्ले में तन गए फ्लैक्स। इसमें जितनी बड़ी नेताओं और प्रसाद वितरण के आर्गनाइजरों की फोटु होती है। उसका एक तिहाई छोटा सा भाग भगवान के लिए आरक्षित कर दिया जाता है। आर्गनाइजरों की विशालकाय हांथजोड़कर माथे में तिलक रंगी लाल सफेद तिनरंगी गमझे वाली फोटु। यह कुछ दिनों तक चिपके रहने के बाद फटकर लोगों के पैरो तले रौंदाए किसे परवाह। फ्लैक्स के निचे फलां पर्व की शुभकामनांए। हद तो तब हो गई जब हमारे बिलासपुर के एक नगर पंचायत के नेता ने चुनाव जितते ही सांई बाबा की भक्ती को भुनाने मंदिर निर्माण से लेकर पालकी यात्रा का प्रबंध कर दिया।
देश में आस्था के नाम पर राजनीति पहली बार नहीं। भगवान श्री राम को तो कुछ ने खुब फुटकर कराया है। बात महल भक्ति तक सीमित हो तो भी अच्छा था। इनकी आड़ में अपनी पब्लीसिटी का जो जाल फैलाया है यह घातक है। देंवताओं की भक्ति भारत में आम बात है उसका श्रेय लेने के लिए मची होड़ से आपत्ति है।
ईश्वर अपने भक्तों को सदबुद्धी दो कि आपका नाम लें, और लोगों को प्रेरणां भी दें, लेकिन आपके नाम पर अपनी पहचान बनाने का पब्लीसिटी गेम कहां तक जायज है।

पहले तो देंवताओं और उनके भक्तों से लिखने की हिमाकत के लिए क्षमादेंवताओं का फ्लैक्सीकरण, हां सच है। सड़क चलते तमाम फ्लैक्स सांई बाबा, दुर्गामाता, शंकर भगवान, जब जिनकी डिमांड तब वैसी फोटो। उनकी ही फोटो होती तो बात न थी । साथ में फ्लैक्स बनवाने वाले की पुरी जन्म पत्री। बात श्री सांई बाबा के नाम पर प्रसाद बंटवाने तक होती तो पुण्य की बात थी। लेकिन पुरे आसपास के माहौल का जो फ्लैक्सीकरण किया जाता है शिकायत इससे है।

तशरीफ टिका ही लिजीए

तशरीफ टिका ही लिजीए, आईपीएल आ गया है। ऐसे आप दिनभर इतने बीजी रहते है। कि आपको तशरीफ टिकाने का मौका ही नहीं मिल पाता। लिजिए आपके सारे काम, घर की जिम्मेदारियां, आफिस के फाईल निपटाने,देश की जिम्मेदारियों को निपटाने का सारा जिम्मा आईपीएल ने लेलिया। इसलिए सारे काम छोड़कर आप आराम से बस के उपर, टायर में, कम्बोड पर, पेपर के बन्डल पर, वनस्पती के डिब्बे पर, साईकल के केरीयर पर कहीं भी अपनी तशरीफ टिकाकर मैच का मजा ले सकते हैं। और कुछ देखेंगे भी। बात मनोरंजन से भी आगे जा रही है। जब छोटे—छोटे बच्चों को पढ़ाई और खेलकूद से दूर कार्पोरेट मैच के इस घटिया फार्मेट के लिए उन्मादी और अति उत्साह में देखता हूं तो चिंता होती है। मैच किसका होगा, दो कार्पोरेट लाबियों का, लड़ेंगे कौन, दो राज्यों के नाम और उनकी अस्मिता। पहले पहल जब भारत पाकिस्तान के मैच होते थे, तब माहौल जीत या हार में हो हंगामा जैसा बिलकुल न था, लेकिन मीडिया के उकसावे और मैच को दुश्मनी की तरह देखने के नजरीये ने खेल को जंग का मैदान बना दिया। आलम यह है कि, अब मैच जितने पर जंग जितने की खुशी होने लगी है। ऐसा उन्माद यदि भारत के अलग अलग शहरों और राज्यों के बीच पनप गया तो, हालात कैसे होंगे यह सोंचना होगा। फिर आईपीएल ही हो रहा है ना, कोई समुद्र मंथन तो हो नहीं रहा, जहां से नौ रत्न या अमृत का घड़ा निकलने वाला हो। तो इस हर साल लगने वाले व्यापार मेले की तरह लगने वाले आईपीएल लिए ओवर एक्साईटेड होने की क्या जरूरत है। हमारे इस अतिउत्साह और घटीया कार्पोरेट मैच की आड़ में निलाम हो रहे खिलाड़ीयों को देखना हमें तो नहीं भाता। लोगों को इसका जबरीया फैन बनाकर फिर से सेंट, पीपरमेंट, साबुन तेल मसाला बेचने की तैयारी है। खेल देखना अब केवल मनोरंजन नहीं रहा शायद, क्रिकेट देखना मनोरंजन न रहकर कैसे बना आदत..पता ही नहीं चला ..खैर क्रिकेट प्रेमियों को हर चीज में छूट है ...

Saturday, March 24, 2012

या तो सेट है या लड़ना छोड़ दिया है। यूथ कांग्रेस व एनएसयूआर्इ् नाम की

हां यही लगता है इनकी कार्यप्रणाली देखकर, की या तो सेट हैं या इन्हें आंदोलनों से अब भय लगने लगा है। क्योंकि जो कुछ छोटा मोटा हूजूम कभी दिखाई पड़ रहा है, वह प्री प्रोग्राम ड्रामा से इतर कुछ और नहीं है। हम बात कर रहे हैं छत्तीसगढ़ कांग्रेस के युवा नेतृत्व एनएसयूआई व युवा कांग्रेस की। कुछ बन्धुओं को इस बात से एतराज़ भी होगा कि, वे कुछ करें न करें, लिखने वाले को क्या मतलब। मतलब है, मुझे आपकी पार्टी से। राज्य की एक मात्र बहुमत की विपक्षी पार्टी है कांग्रेस । जनता ने वोट दिया है इसलिए मतलब है। आप किसी पार्टी से जुड़कर ही सही राज्य के युवा वर्ग का प्रतिनिधीत्व करते हैं इसलिए भी मतलब है।
राज्य में भाजपा का लगातार दूसरा कार्यकाल चल रहा है लेकिन आज भी चारो ओर भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, अन्याय, अत्याचार, डर भय आतंक, प्रशासनीक आतंकवाद जैसी तमाम बुराईयां चरम पर है। इनका समय समय पर कांग्रेस विधानसभा में और कभी कभार सड़कों पर विरोध जताती रही है। लेकिन कई ऐसे मुदृदे भी हैं जिन पर बड़े जन आंदोलन की जरुरत है लेकिन कांग्रेस खामोश है युवा वर्ग, छात्र वर्ग खामोश है। या उन्हें असल मुदृदों की जानकारी नहीं है। इन मुदृदों को सामने लाने के पीछे क्या मजबूरीयां हैं इसका जवाब या तो भगवान जानता है या ये खुद!
राज्य में सबसे बड़ा जिसे मैं मानता हूं वह मामला है सोनी सोढ़ी का जिन्हें उनके आदिवासीयों के हित में लड़ने की सजा जेल जाकर चुकानी पड़ रही है। आपके जैसे बड़े पार्टी के होते हुए उनकी आवाज जनता तक नहीं पंहुच पा रही है इसके लिए क्या आपको भी दोषी नहीं माना जा सकता। उस आदिवासी शिक्षक के साथ बलात्कार किया गया। उसके गुप्तअंगो पर पत्थर ठूंस दिए गए। रायपुर के अस्पताल में जांच होने पर रिपोर्ट में खा गया बलात्कार हुआ ही नहीं है । कोलकाता में जांच होने पर बलात्कार की पुष्टी होती है गुप्त अंगो से पत्थर निकलते हैं। यह सब देखकर भी आपकी पार्टी खामोश है। इसलिए कहना पड़ रहा है। सब सेट हैं।
दूसरा मामला मैं भाजपा के शासनकाल में ऐसे आदिवासीयों से भी मिला हूं जिनकी जमीन सरकार ने जबरिया छीन ली। बस्तर स्थित लौंहडीगुड़ा के किसानों के परिवारवालों को जेल में डाल दिया गया और कहा गया कि कागज में हस्ताक्षर करो तभी परीवार के लोगों को छोड़ा जाएगा। क्या इस पर युवा नेतृत्व की नजर नहीं पड़ी।
तीसरा मामला राज्य के अभनपुर इलाके के बीपीएल परीवार के आदिवासी किसानों के नाम पर रायगढ़ में करोड़ो रुपए की जमीन उद्योगपतियों ने खरीद ली सरकार इसकी जांच नहीं कर रही है। इस तरह कई इलाकों में आदिवासीयों की उद्योगों के लिए खरीदी बेची जा रही है। लेकिन आप इसे आंदोलन के जरिये लोगों तक पंहुचा पाते ऐसा माददा शायद अब इन इकाइयों में नहीं है|
चौथा मामला सरकार आदिवासी, सतनामी समाज पर जमकर राजनीति कर रही है। आंदोलनों का दमन किया जा रहा है। कांग्रेस चाहती तो बड़ा आंदोलन खड़ा कर मामले को जन—जन तक पंहुचाकर, सरकार के जातीवाद आधारित राजनीति का काला चेहरा सामने ला सकती थी। लेकिन मामला विधानसभा से विधायकों के बर्हिगमन तक सिमित रह गया।
पांचवा मामला राज्य में उद्योगों के लिए आदिवासीयों का आशियाना जलाने की घटना के जांच के लिए सीबीआई की टीम राज्य आती है और इसे छत्तीसगढ़ की वह एसपीओ जीसे रमन सिंह अच्छा बताते हैं यही एसपीओ हमला कर देती है। यदी सरकार इसी एसपीओ की प्रशंसा करे तो क्या यह नहीं कहा जा सकता की सरकार के इशारे पर सीबीआर्इ् पर हमला हुआ।
इसी तरह दर्जनो घटनाक्रम व मामले हैं जिन पर सरकार को घेरकर लोगों में भाजपा की साख गिराने का मौका मिल रहा था। लेकिन सब खामोश रहे। मामला कुल मिलाकर यह है कि जनता में अपनी गिरी हुई साख जिसके कारण 2003 और 2008 में मुंह की खानी पड़ी थी इसे सुधारने और जनाधार बढ़ाने का मौका कांग्रेस के हांथ आया और फिसल कर चला गया। कहां थे आई रे आई एनएसयुआई, कहां थे टाटा सफारी में बैठकर खुद को यूथ कांग्रेस के पदाधीकारी बनकर खुद को यूथ हिमायती बताने वाले। इस तरह देखा जाए तो पिछले कुछ सालों में गली मोहल्ले कालेजों में कांग्रेस के कार्यकर्ता जरूर बढ़े हैं लेकिन सरकार हिल जाए ऐसा कोई आंदोलन देखने को नहीं मिला है।
माजरा दरअसल यह है कि कांग्रेस में कहीं न कहीं ऐसे यूथ चेहरे की कमी दिखाई पड़ रही है। जो पार्टी से अलग अपनी अलग पहचान रखता हो जिसे लोग पार्टी के पद से बढ़कर उसके आंदोलनों के लिए जानें। छत्तीसगढ़ में सरकार की भूमिका पर तो मीडिया संस्थान अक्सर सवाल उठाते रहे हैं लेकिन विपक्ष की भूमिका पर कौन सवाल उठाएगा।

अब पुतला दहन और शव अर्थी से बात नहीं बनेगी
कुछ जनआंदोलन करना होगा
तानाशाह इस अधिनायकवाद पर
अब तो प्रहार करना होगा

:देवेश तिवारी

Saturday, March 3, 2012

कोई जवाब तो दे

कैसे जीते बारुद के उपर संगीनों के साए में 
कैसे जीते अभाव के मारे लाशों के साराय में                                                        
देखेंगे कैसे मरते हैं वहां चिंटी की तरह इंसान 
कैसे बन जाते हैं अपने ही भाईबन्धु शैतान

जहां जवानी आने से पहले अंदर ही घबराती हैं
पानी लेने जहां मातांएं बहने कोसो दूर जाती हैं
कैसे जवान बंदूक थामे खुद घरबार छोड़े बैठे हैं
कैसे जनतंत्र की बांहें कुछ माओ मरोड़े बैठे हैं

अत्याचारी पुलिस प्रशासन, मौन हुए सब सिपेसलार
भोले आदिवासीयों के हत्यारे, कैसे बन बैठे थानेदार
चूहों की तरह बील में कैसे जनप्रतिनीधी घुस जाते हैं
पंचवर्षीय चुनाव मेले में,कैसे मांद छोड़ बाहर आते हैं

खूनी नदीयां,खूनी सड़कें, खूनी पुल,खूनी हाट बजार सारे
पल में जीते पल—पल मरते जंगल के असल मालिक बेचारे
सब कुछ देखकर मौन चिंदंबर,मौन है मोहन,मौन रमन है
लोकतंत्र के आभासी किताबों में खोजा हमने क्या ये अमन है

कोई बताए ये कत्लेआम लड़ाई किसने छेड़कर छोड़ दी
किसने की शुरूआत किसने निर्ममता की हदें तोड़ दी                            
कौन जलाता है घरबार, कौन शमा जलाने जाता है
कैसे मुखिया एकात्म की छत से हर शाम गुर्राता है

कोई जवाब तो दे, किसने बरसों तक, सौंतेला बनाया
कोई जवाब तो दे किसने, जन से तंत्र, काट गिराया
बच्चा बच्चा मेरे राज्य का यही सवाल पूछता है मुखिया
बताओ मेरे भाईयों को बेघर अनाथ किसने बनाया : देवेश तिवारी

Friday, March 2, 2012

लोकतंत्र के हत्यारों



सत्ता सुख के अंधे तुम हमें चलना सिखाओगे
अब लोकतंत्र की परिभांषांए तुम हमें बतलाओगे
सत्ता सौंपी थी तुमको हमने, रक्षा हमारी करने को
हमसे पहले अग्नी में सब होम हवन कर जलने को
बगावती भले हो जांए, नहीं सहेंगे अत्याचारों को
अब तो सबक सिखाना होगा लोकतंत्र के हत्यारों को  


बेचा जंगल, बेची नदियां बाप की जागिर समझकर
सीना ताने चलते हो लैनीन की तुम शाल ओढ़कर
लो ताल ठोंकते हैं हम मुकाबला आकर  हमसे लो
कुछ बूंद हमारे रक्त से भी कोठीयां अपनी भर लो
बंदूकें छीननी होगी अब निकम्मे पहरेदारों से
अब तो बदला लेंगे हम लोकतंत्र के हत्यारों से


बस्तर की घाटीयों में जब-जब कत्लेआम हुआ है
बारुदों के ढेर में अमन चैन सब निलाम हुआ है
खुद तो बैठे बूलेटप्रूफ में और हमारी चिंता छोड़ दी
हमारी रक्षा करने की तुमने सारी प्रतिज्ञाएं तोड़ दी
लोकतंत्र का चिरहरण अब नहीं सहाता  यारों से
अब तो गद्दी छिननी होगी लोकतंत्र के हत्यारों से                                      

जल, जंगल, आदिवासी राजनीति की बीसात बने हैं
इन्हें लूटने राजनीति में कई मोर्चे और जमात बने हैं
की होती गर चिंता हमारी, गोलाबारुद न बरसते होते
हम जंगल के रहवासी अपने घर को न तरसते होते
अब तो सारे पाखंड तुम्हारे, हमें समझ में आते हैं
लोकतंत्र के हत्यारों भागो अब, हम सामने आते हैं


छत्तीसगढ़ महतारी, जननी,का कर्ज चुकाने आए हैं
हमारे पुरखों ने खातिर इसकी हजारो जख्म खाए हैं
माना तुम सूरमा हो हम भी विरनारायण  फौलाद हैं
रुधीरों में हम आग बहाएं हनुमानसिंह की औलाद हैं
अब तो माता की पीड़ा हम और नहीं सह पाएंगे
लोकतंत्र के हत्यारों को अब हम सबक सिखांएगे

सौंपी दी सत्ता हमने तो, मुंह बंद करा दोगे क्या
उठाया हक की खातिर सर, कलम करा देागे क्या
लो सीना ताने हम भी आज खुनी फरमाईश रखते हैं
तेरे महलों के सामने आज लाशों की नुमाईश करते हैं
हिम्मत है तो हमारी तरह आंसू खून के पीना सीखो
लोकतंत्र के हत्यारों अब,  असल रुप में जीना सीखो

: देवेश तिवारी

Sunday, February 26, 2012

हम यूथ कहीं थ्यूए थू न हो जाएं !

उम्मीदें तो बहुत हैं युवाओं से, ऐसी उम्मीद जिसे सुनकर चिंतक चिंता छोड़ देते हैं, उन्हें लगता है जैसे बस पलक झपकी और आ जाएगी क्रांती। दरअसल युवाओं के जिस जागरुक रुप को हम देख रहे हैं वह साबुन के बुलबुले या पेप्सी के झाग से अधिक कुछ भी नहीं है। देश ने कई मर्तबा इस पिढ़ी को सड़कों पर आते देखा है, जब जब आए हैं बहुत कुछ बदला है, फेसबुक पर वाल पोस्ट बदल जाते हैं, प्रोफाईल बदल जाते हैं, मोबाईल के मैसेज बदल जाते हैं। इससे ज्यादा परिवर्तन कुछ भी नहीं। बेशक व्यवस्था को लेकर इनके भीतर आग जल रही है। लेकिन लड़ना कैसे है, किसी को नहीं पता। इन्हें उस भेंड़ की तालाश है, जो पहले गढढे में कूदेगा। उसी का कंधा चाहिए बंदूक चलाने को।
      खैर जो भी है, देश चल रहा है, पुरानी बुनीयादों से इंटे निकल रही है, लेकिन नए आधारों के दिमक से पुराने इंट ही अच्छे। व्यवस्था:  देश की, राज्य की, समाज की, आसपास की, विश्व की, पर्यावरण की हर व्यवस्था, जिसके लिए यूथ की ओर हम ताकते हैं| सच्चाई यह है कि यह यूथ अब उल्टे रास्ते चल पड़ा है| इसमें कहीं न कहीं हम भी शामिल हैं, यूथ उलटकर थ्यू थू हो  चला है। काम क्या है सुबह उठना, कालेज जाना कुछ लोगों से बतियाना इससे ज्यादा कुछ सोंचा तो कटरीना का चिकनी चमेली। किसी ​मुदृदे पर बात करनी हो, इनसे विदृवान कोई नहीं, सब जानते हैं, अखबार पढ़ते हैं, न्यूज देखते हैं पूरी खबर रखते हैं, लेकिन करना कुछ नहीं, ब्लैकबेरी का नया मॉडल शायद ज्यादा जरुरी है। राजनीति में आकर व्यवस्था सुधरेगी, आईकन कौन?  राहुल गांधी इसके लिए भी जागिर में कुर्सी चाहिए, ऐसी किस्मत राहुल की ही हो सकती है, आपकी नहीं। ये उम्मीद भी खत्म। इंजीनीयर बनना है, डाक्टर बनना है, वो सबकुछ बनना है, जिससे तगड़ा अर्थोपार्जन हो सके|  नहीं बनना है तो देश सेवक|  सही ​भी है माता​—पिता ने जो सिखाया वह ज्यादा जरुरी है। पढ़ाया लिखाया है अच्छा इंसान बनने को नहीं कहा, कभी देशसेवा करने को नहीं कहा कभी, फिर उनके खिलाफ कैसे जा सकते हैं।
     दूसरा पहलू पढ़ाई से उपर कुछ करना है तो गार्डन में चोंच कैसे लड़ांए, केएफसी किसके लिए खुला है, इनके उपभोक्ता भी तो हमें ही बनना है। बाजार में डर्टी पिक्चर आई तो धमाल सुपरहिट, सोशल वैल्यू पर फिल्म आई जाने वाले को भी रोक दिया, सोने जाएगा क्या।
    अपने देश की व्यवस्था कैसे सुधरेगी किसी को कोई मतलब नहीं वरन अमेरिका की सड़कों पर पीएचडी है इन्हें। इनसे है हमें क्रांती की उम्मीद।
मेरी मां, मेरा बापू, मेरा डोकरा ऐसे संबोधन में उलझी पिढ़ी, खुद को यदि आने वाले समय का आर्दश बताए चिंता होनी भी चाहिए।
      आज अगर माता पिता देश की वर्तमान दशा और लूट तंत्र को लेकर चिंता करते हैं तो उन पर जैसी करनी वैसी भरनी वाली कहावत चरिर्ताथ होती है। आपने अपने बच्चों को हर खुशी देने के लिए कौन से रास्ते अपनाए इसका जवाब खुद से मांगे, आईना टूट जाएगा। इसके बाद यदि युवा केवल और केवल अपने बारे में सोचतें हैं तो हाय तौबा मचाने की जरुरत नहीं है।
      आडी, वाशवैग्न, फरारी की चमक इन्हें अधिक नजर आती है बजाय अपने शहर के सड़कों को झांकने के। मुदृदे कई हैं​, ​जिनमें इनकी सोंच चाहिए, व्यवस्था में परिवर्तन इनके बिना नहीं हो सकता। देश की दशा इनकी बैशाखी के बिना जमीन पर धाराशायी नजर आती है। लेकिन इन्हें गार्डन, पब से बाहर कौन निकालेगा। ज्यादा सोंचने की जरूरत नहीं पेशानी पर बल साफ दिखता है। जब पड़ोसी के घर में बाढ़ का पानी घुसता है तो घबराहट नहीं होती बल्कि मौज सूझता है,लेकिन अपनी चौखट गीली होने पर बिस्तर छज्जों में नजर आते हैं। समय आएगा देर से ही सही। हम भी राह ताकते हैं आप भी राह ताकिए। फिलहाल दूसरों के घरों को छोड़कर अपने घर में झांकिए।

: देवेश तिवारी

Friday, February 17, 2012

राजिम कुंभ: संत समागम या पीआरओ सम्मलेन


अभीअभी राजिम कुंभ से लौटा हूं। बहुत कुछ देखने को मिला, लेकिन जिस नज़ारे ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह आपसे बांटता हूं। राज्य सरकार राजिम कुंभ के नाप पर करोड़ो रूपए क्र्यों खर्च करती है इसका सच भी यहां आकर साफ हो गया। राजिम कुंभ के मेले में प्रवेश करने से पहले रायपुर पार करना होगा, रायपुर के सभी चौक चौराहों में राजिम कुंभ के प्रचार प्रसार के लिए साधु संतों के साथ राज्य के संस्कति मंत्री (डालर में घूस लेने वाले मंत्री) ब्रजमोहन अग्रवाल की साधुओं से तीन गुनी बड़ी तस्विर विभाग के पैसों से खर्च कर लगाई गई है। इन्हें पार करने के बाद जब आप राजिम पंहुचते हैं| राजिम में नदी घाट से पहले ही आपको बिजली के दुरुपयोग की बानगी कहता तारों के समान चमकदार टयूबलाईट का प्रकाश देखने को मिलता है। अंदर प्रवेश करते ही मंच के पहले भाजपा के स्थानीय नेताओं की लगाई गई बड़ी बड़ी होर्डिंग्स देखने को मिल जाएगी। इसे देखने के बाद आपको वापस नहीं लौटना है यहां का द्रश्य भले ही भाजपा की रैली के समान दिखाई दे लेकिन कुछ पैसा मेले के लिए भी खर्च किया गया है, इसे भी आपको ही देखना है।
      अब सारा तामझाम देखने के बाद मुझे नागा साधुओं से मिलने की इच्छा हुई क्योंकि वे पिछले साल के आपसी झगड़े के बाद से फार्म में आ गए हैं और राजिम कुंभ का मुख्य आर्कषण बने हुए हैं। पहले तो गार्ड ने हांथ में कैमरा देखकर अंदर घूसने नहीं दिया। जैसे तैसे दिवार कूद-फांद कर आखिर अंदर पंहुचना हुआ यहां बैठे एक नागा महाराज से मिलकर मुझे लगा जैसे दिवार कूदना निर्रथक हो गया। पूरे नज़ारे को समेटकर कहूं तो, अब नागा साधुओं में आर्कषण या साधु जैसी बात देखने को नहीं मिली। सभी साधुओं ने ठण्ड से बचने अलाव की ताप ले रहे ​थे। साधु संतो की बात सामने आते ही हम प्रवचन और उनकी पुराणिक कथाओं को याद करने लगते हैं। यहां अधिकांश साधु बात बात पर किसी न किसी पात्र को असमाजिक गालियों के सम्बोधन से अपनी गरीमा को भस्म बनाने में लगे हुए थे। आज उनके हांथ में कमण्डल की जगह बीसलेरी की बोतलों ने ले ली है। अधिकांश काले हॉफ जैकेट में नजर आए| जिन्हें हम त्याग और सर्मपण के लिए जानते हैं, और कहते हैं कि, बारहो मास बिना कपड़ों के कैसे गुजार लेते हैं। साधु के पास जाते ही मैने देखा, उनके पास नकली टूटी हुई जटा पड़ी हुई है। जिसे वे कैमरा देखते ही सर पर बांध लेते थे। कैमरे के सामने आते ही उनके बातचीत और कैरेक्टर मे आकस्मात बदलाव देखने को मिला वे बैग से राख निकालकर चेहरे पर तुरंत मलने लगे| बीच-बीच में ध्यान मग्न हो जाते थे| थोड़ी देर में ध्यान तोड़कर खुद ही पोज बताकर कहने लगे, इधर से लो पूरा फोटो आएगा। लोगों की भीड़ जुटते ही वास्तवीक जिवन के रहस्यों को तोड़ती प्रवचन की धाराप्रवाह प्रवचन से बाबा ने साधु होने का बोध कराया| जब हम बाबा के पास पंहुचे तब बाबा किसी जिले के नेता या अधिकारी से फोन पर बतिया रहे थे, हमें इशारे से बैठने को कहा। आध्यात्मिक जिवन के सरताज फोन पर सामने वाले महोदय को जी सर, जी सर के संबोधन के साथ प्रवचन सुनाने में लगे थे। हम भी कहां कम हैं झट से मोबाईल निकाला और विडियो बनाने में लग गए| क्या पता बाद में बाबा झूठ बोलने की बात कहकर श्राप दे दें। इससे भी बड़ी बात बाबा फोन पर सामने वाले महोदय से कह रहे थे कि रमन सिंह का बहुत बहुत धन्यवाद जो इतना बड़ा समारोह करवा रहे हैं। सामने वाले को भाजपा की फिर से सरकार बनने से लेकर पूरी बातें विथ आशीर्वाद भाजपा के पी आरओ की तरह। सारा खेल बनावटी इन्हें देखकर लगा मानो यह संतसमागम न होकर पीआर समागम हो गया हो। साधू संत इन नेताओं से कमसकम अच्छे लगे जिसका खाते हैं, उसका खूब गाते हैं,
      बाबा इतने में कहां रूकने वाले थे| बाबा ने  फोटो लेने के बाद मुझसे कहा:- अच्छे से लिखना मेरे बारे में बच्चा। मैंने कहा बाबा आपका आशिर्वाद मिल जाए तो सच ही लिखता रहूंगा।




बाबाओं ने तोड़ा हठयोग 
राजिम कुंभ 2011 में नागा साधुओं के दो मठों के बाबा आपस में वर्चस्व को लेकर खुनी लड़ाई पर उतारू हो गए थे। बाद में सरकार और पुलिस के बीच बचाव के बाद मामला शांत हुआ। इस साल नागा साधु मेले में सही जगह नहीं मिलने के कारण सरकार से नाराज होकर वापस लौट रहे थे| बाद में मंत्री जी ने हांथपांव जोड़कर इन्हें वापस बुलाया, और बुलाते भी क्यों नहीं, इनसे ही मेले कुंभ का आर्कषण है। बाबा इनके चलते फिरते पीआरओ जो ठहरे। इन बाबाओं के कैम्प के ठीक सामने लगे मंत्री जी के बड़ेबड़े पोस्टर कौन देखता, अगर ये चले जाते। दुख: की बात यह है कि साधुओं को जगह नहीं मिलने के कारण साधु वापस लौट रहे थे तब इनके हठ को देखकर लगा था वापिस किसी हल में नहीं आएंगे| सुना था] योगी हठ, बाल हठ और स्त्री हठ खतरनाक होता है, मनाए नहीं मानते, ये सब। लेकिन बाबाओं ने रुठने के बाद भी म़ंत्री जी के कहने पर जो हठ तोड़ा वह साधुओं और हठयोगियों के सम्मान के तप को तारतार कर देने वाला था। मंच पर बैठै सभी साधुओं ने जितने शब्द धर्म और आध्यात्म पर खर्च नहीं किए उतने शब्द मंत्री जी के यशगान व जनसंपर्क बनाने में खर्च कर दिए। बताइए इसके बाद भी उनके प्रति आपके मन में सम्मान कहां से आएगा। मैनें उन्हें प्रणाम किया और चुपचाप बेरीकेट पार कर बाहर निकल आया। मेले में कॉफी कुछ था देखने को लेकिन मुझे वह देखना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा जो सरकार जबरिया दिखाना चाहती ​थी| वह तो बिलकुल भी नहीं जिन्हें राज्य सरकार की झूठी प्रसिद्धयों को दिखाने के लिए जाल की तरह बुना गया था। मेले में कॉफि समय घूमता रहा आसपास का माहैाल देखा और वापस लौट आया
 जो मेरे मन ने कहा, वो यह कि,  अब साधु भी देश दुनिया में देवताओं का नहीं, ख्याती के लिए नेताओं का यशगान करते हैं।अब साधुओं की पीठ पर भी फूल व पंजा के निशान देखने को मिलने लगे हैं। 



क्या कहें सर्वे भवन्तु सुखिन: साधु भी खुश रहें उनके मोबाईल में सदा टावर रहे। उनके प्रचार से रमन सिंह के पास हमेशा पावर रहे। अधिकांश  साधु-संत राजनीतिक पार्टीयों और मंत्रीयों के भोंपु हो चले हैं। खैर ये भी ठीक है भारत में साधु संतो की राजनीति में पदार्पण कौन सी नई बात है।राजनीतिक पार्टियों और लंबे फंड से किसे प्रेम नहीं है। साधु संतो के बारे में नहीं लिखना चाहिए लेकिन हकीकत देखकर भी अंधा गुंगा बन जाऊं यह मुमकिन नहीं। : देवेश तिवारी 

Thursday, February 16, 2012

फोटो क्यों खींचते हो


उसने कहा फोटो क्यों खींचते हो .. मैंने कोई गलत काम नहीं किया है थोड़ी समझाइश के बाद वो सरल हो गई .. आप हैं फूल बाई जो  74 साल की अवस्था में दिन के चार घंटे नाली में सर गडाये रखती है .. ताकि कुछ पैसे मिल जाएँ और वो परिवार का सहयोग कर सके| फूलबाई 64 सालों से इसी तरह गन्दी नालियों में जिंदगी तलाश कर अपना और अपने बच्चों का पेट पाल रही है .. सुबह 10 बजे से नालियों से रेत निकालने का सिलसिला शुरू होता है जो शाम चार बजे तक चलता है| रायपुर में बजबजाती नालियां जिसके पास जाने में भी हम घिनाते हैं ऐसी जगह के पाटे पर बैठकर घंटो तसला घुमाकर नाली के निचले सतह से रेत निकला जाता है| फूलबाई सुनारों की बस्ती के नालियों से इसी तरह  रेत इकठ्ठा कर उसे सुखाती है और बिना चश्मा के उनसे सोने के महीन कण अलग करती है .. फूलबाई का पूरा परिवार इसी काम में लगा रहता है | फूलबाई चाहकर भी अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाई| रोते हुए कहती है कि, मैं जब तक जिन्दा हूँ और हड्डियों में जान है कमाती रहूंगी, ताकि नाती पोतों को पढ़ा लिखा सकूँ .. वो नहीं चाहती की उसके नातीयों को किसी रईसजादे के आलीशान शोरूम के सामने नाली से रेत छानना पड़े| फुल बाई को कई बार नाली में चांदी के टुकड़े भी मिल जाते हैं तो कारीगर उससे जबरजस्ती कर टुकड़ा छीन लेता है .. फिर भी दिन भर में 50 से 80 रूपये कमाने के लिए वो जद्दोजहत करती हुई अपमान के घूंट पी जाती है ..| समय के साथ फुल बाई अब पन्नी और लोहे जैसे मोटे कचरे भी बीनकर बेचने लगी है .. बताती है इससे 10 रूपये की अलग कमाई हो जाती है जो बच्चों के खाई खजाने के काम आ जाते हैं| फूलबाई के इस उम्र में ऐसे जज्बे और आने वाली पीढ़ी के लिए सोंच को देख कर सलाम करने कि इच्छा होती है| कुछ पल मैंने भी फूलबाई के साथ बिताए.. फूलबाई पढ़ी-लिखी नहीं है लेकिन जिंदगी का अच्छा तजुर्बा रखती है|  : devesh tiwari 

Wednesday, February 15, 2012

अब परवाह नहीं करता

मुझे आंसुओं के सैलाब में, बहना नहीं आया 
कुछ बातें ऐसी भी थीं मुझे कहना नहीं आया 

जो दावा करते थे मुझे समझने का तो इशारे की काफी थे 
क्यों लगाते हो इल्जाम मुझपर रूठ जाने का 
तब भी दाग थे शायद तुम्हारी नियत में
वरना अफ़सोस तो जताते साथ छूट जाने का

जिंदगी चार दिन की है आखिर में मुलाकात होगी
फिर तपती दोपहरी या अमावस की रात होगी
मैं तो अंधेरे में भी तुम्हारी आहट पहचान लूँगा
तुम पहचान लेना मुझे तब कोई बात होगी

एक दरिया खून का मेरी प्यास बुझाता रहा
मैं अपने ही लाल रंग से धार बनाता रहा
झेला है इतना दर्द की अब आह नहीं करता
किसी के आने-जाने की अब परवाह नहीं करता : देवेश तिवारी

मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं

क्यों इल्जाम लगाम लगाऊं तुमपर, क्या तुमने अपराध किया है 
बस अपनी खुशियों की खातिर, गैर का दामन थाम लिया है
फिर मुझपर क्यों ठहरी नजरें, इसका कोई जवाब तो दे 
तुझे भूलाकर नशा करा दे , ऐसी कोई शराब तो दे 

तू ही कतल आ कर दे मेरा, यही तमन्ना रखता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं

इन पलकों पर तेरे आंसू, क्यों रहते हैं ये तो बता
तेरी यादों के बादल यूँ , क्यों मंडराएं ये तो बता
तू खुश है तो मै भी खुश हूं , चाहे ये हो कोई सजा
फिर चाहे मुझे मौत मिले, तेरी खुशी और तेरी रजा

तू ही आकर जहर पिला दे, आखरी ख्वाहिश रखता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं

डोली वाली सुन तो जरा, मुझ पर तू विश्वास तो रख
जाना है तो शौख से जा, मेरा कलेजा साथ तो रख
तेरी यूं उखड़ी सी अदांए , मैं तो सह ना पाऊंगा
तेरे गली के नीम तले, मैं तड़प-तड़प मर जाऊंगा

तेरी खुशीयों पर आंच न आए, यही गुजारिश करता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं

तेरी गली के गुलमोहर में , फिर से बहारें आई हैं
मेरे बगिचे की कलियाँ क्यों, आज भी यूँ अलसायी हैं
तेरी अदांओ को कातिल मैं , कैसे बिसराऊं ये तो बता
अपने ही खंजर को सीने में, कैसे बुझांऊं ये तो बता

तुझको खुशियों का बाग मिले, मैं यही तमन्ना रखता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं             :देवेश तिवारी 

Saturday, January 28, 2012

मुश्किल लेकिन संभव उम्मीद


क्या कारण है,कि राज्य में हमेशा भाजपा या कांग्रेस की सरकार बनती है। क्या कारण है कि सत्ताधारी लगातार निरंकुश हो रहे हैं। सरकार आदिवासी इलाके में लोगों के साथ ज्यादती कर रही है। लेकिन कोई बोलने वाला भी नहीं है। राज्य सरकार के विरोध में कांग्रेसी हैं मगर उनकी भी सत्ता आ गई, तो कौन सा बदलाव देखने को मिलना है, भाजपा है जहां बनिया राज, कहने का मतलब धनाड्य लोगों का, व्यापारी वर्ग का शासन चलता है नितियां उन्हीं के लिए बनाई जाती हैं और कांग्रेस की क्या कहें एक गेम खेलते हैं अपने इलाके के किसी भी असामाजिक आदमी का नाम सोंचिए जो चोरी, जुआ, मर्डर, हाफ मर्डर जैसे केस में जेल की हवा खा चुका हो। अब बताइए की वह कौन सी पार्टी में है। सभी कांग्रेस में ही मिलेंगे|  बिहार, झारखण्ड, बंगाल,उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों के पास विकल्प भी हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में कोई विकल्प नहीं है। बरसों से चली आ रही वामपंथ की सरकार को ममता बनर्जी ने परेड मैदान में घंटी बांधकर उखाड़ फेंका लेकिन रायपुर के सप्रे शाला मैदान में कौन घंटी बांधेगा, विकल्प नहीं होने के कारण कांग्रेस या भाजपा जैसी किसी राष्ट्रीय पार्टी को मतदान करने के अलावा कोई चारा नहीं है, छत्तीसगढ़ के सामने।
   दोनेा पार्टियों के तानाशाह रवैये और पार्टी फंड के नाम पर राज्य भर से गलत माध्यमों दवारा समेटे जाने वाले पैसे को रोकने का क्या उपाय है। किसी एक राज्य में जब किसी प्रमुख पार्टी का कब्जा होता है, तब वहां के युवा उनकी गलत नितियों का विरोध करते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में युवा बुढढों के पिछे चलकर नारा लगाने में ज्यादा यकीन रखते हैं। बेशक राज्य के युवा राज्य के भविष्य को लेकर चिंतित हैं लेकिन पार्टी विशेष से निकाले जाने का भय जुबान में दही जमा देती हैं। राज्य की दशा और दिशा को तय करने कब कोई अभिमन्यु आएगा शायद छत्तीसगढ़ महतारी यही सवाल अपने आप से पूछती होगी। राज्य में समस्याओं का अंबार लगा हुआ हैं बस्तर जैसे राज्य में 90 फिसदी लोगों के पास पीने का साफ पानी नहीं है और युवा नेता बीसलेरी बिना प्यासे रह जाते हैं। राज्य में कुपोषित बच्चों की संख्या देश भर से कहीं ज्यादा है। राज्य में नक्सलवाद की समस्या गहराती जा रही है मगर विकल्प दिखाई नही पड़ रहा है। राज्य में महिलांए सुरक्षित नहीं है, इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। राज्य से हर रोज जनवरी माह में सारनाथ ट्रेन पलायन करने वाले मजदूरों से भरी हुई निकलती है लेकिन विश्वसनीय छत्तीसगढ़ का नारा देकर सभी को दबा दिया जाता है। मैदानी इलाकों में पावर प्लांट लगाने की बजाय जंगलों को काटा जा रहा है। लेकिन आवाज कौन उठाएगा?? राज्य के जांजगीर चांपा जिला, जो एक मात्र 75 प्रतिशत नहरों का जाल फैला था, वहां सरकार ने खेती को चौपट कर 16 पावर उद्योगों को अनुमति दे दी, लेकिन सब चुप। किसी के पास कहने को कुछ नहीं। सरकार आदिवासी इलाकों में नक्सल की आड़ लेकर उद्योगों के लिए जमीन खाली कराने में जुटी है, इसके लिए घर जलाए जा रहे हैं मगर सब मौन आखिर इनके बारे में कौन सोंचेगा? ये सत्तालोभी पार्टियां जो तेरी पारीमेरी पारी खेलने में लगे हुए हैं। मैं यह नहीं कहता कि भाजपा और कांग्रेस के शासनकाल में राज्य का विकास नहीं हुआ बेशक विकास हुआ है लेकिन राज्य में खनिज संसाधनों की उपलब्धता और वनों की उपस्थिति के कारण प्रकृति ने ऐसी बरकत दी है कि, यह धन के मामले में किसी भी राज्य की बराबरी करने को तैयार है। सरकार कहती है हमने विकास किया, राजधानी की सड़कें चमकी और नया पुराना शहर बसाया गया। मॉल और मल्टीप्लैक्स जैसे पैसे खर्च करने वाले संस्थानो में बढोत्तरी हुई| इनसे बढ़कर राज्य का जो चहुँमुखी विकास होना था वो अब तक नहीं हो पाया है। राज्य में शराबबंदी का ढकोसला किया जा रहा है और यहां गणतन्त्र दिवस और घासीदास जयंती में शराबी जाम के पैग छलका रहे हैं। राज्य में सरकार की नितियों में लोगों को विकास के केंद्र पर लाने और राज्य के विकास में गांव की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त योजनांए बनाए जाने की जरुरत है। राज्य में कहीं न कहीं ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों की कमी देखने को​ मिल रही है, जो राज्य के हित में काम करते हुए सत्ता का विकेन्द्रीकरण कर सकें| सत्ता लोभी और धन कमाने की लालसा से परे क्षेत्र के विकास के लिए क्षेत्रीय पार्टी की जरुरत महसूस की जा रही है। समाज के अंतिम आदमी के घर तक भले ही विकास न पहुंच पाया हो, लेकिन हर मोहल्ले में राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने प्रकोष्ठ बनाकर कार्यकर्ता व पदाधिकारी बैठाए हुए हैं| ऐसे में मुश्किल लेकिन संभव उम्मीद जरुर है, जो राज्य के युवा वर्ग को अपनी इच्छाशक्ति के बल पर करना होगा|  : देवेश तिवारी 

Sunday, January 22, 2012

बाज़ार है, सबकुछ बिकाऊ नहीं : देवेश तिवारी



आज खुशी होती है कि बड़ी संख्या में युवा पत्रकारिता के मिशन से जुड़ रहे हैं। आना भी चाहिए इसे युवाओं की जरूरत है। लेकिन आने वाले किसी भी युवा को रेंडमली सेलेक्ट करके आप एक सवाल पूछें की क्यों आए हैं। अगर आप पहली बार मिलते हैं तो जवाब होगा देश सेवा के लिए और मैत्रिपूर्ण व्यवहार बनाकर पूछते हैं तो जावाब आता है कि पैसा और ग्लैमर के लिए| दरसअल दूसरा जवाब ही सही जवाब है, अगर ये दोनों न हो तो फिर भला एक आठ घंटे की रोजी कमाने वाले राजमिस्त्री से कम तनख्वाह में भला 13 घन्टे शारीरिक और 24 घन्टे मानसिक रूप से काम करने कौन आता| ग्लैमर समझ में आता है ये पैसा कौन सी चीज है जो इसमें कमाई जा सकती है| पत्रकारिता चीज ही ऐसी है| समझीये जब कोई इस मिशन में नया आता है तो बेशक जज्बा देखने लायक होता है| अधिकांश लोग इलेक्ट्रानिक मीडिया चुनते है ग्लैमर के लिए कुछ जो जानते हैं कि टीवी का रास्ता अखबार से निकलता है वे यहाँ आते हैं| अब छ: महीने तो सब बढ़िया लगता है, मगर जब निजी जिंदगी तबाह होती नजर आती है, और शौक पुरे करने के लिए पैसे कम पड़ते हैं, तब ग्लैमर भूलकर रास्ता कहीं और चला जाता है| ये रास्ता प्रेस क्लब से निकलता है| भले ही प्रेस क्लब में आपके संबंधों का फैलाव होता हो, लेकिन हकीकत यह भी है की यहाँ नैतिक पतन की ट्यूशन दी जाती है| नया दिमाग नया जज्बा लिए आप पहुचते हैं .. आपकी उर्जा को एक ही सीनीयर इस तरह निराशा में बदलता है कि अधिकांश पहले दिन ही घर लौट लेते हैं या पीएससी कि कोचिंग का पता पूछते हैं| खैर मुद्दा है तोड़ी का ..ये शब्द देश के किसी प्रेस क्लब में ही अवतरित हुआ है| जो प्रेस से नहीं हैं उन्हें बताना होगा कि तोड़ी क्या है| गेन मनी थ्रू ब्लेक मेल दैट इस काल्ड तोड़ी | आप रिपोर्टिंग पे निकलेंगे, जब भी एंटी खबर मिली, आपको आफर तोड़ी का| आप नहीं लेंगे बास को आफर तोड़ी का| ये है तोड़ी,, फिर कोई ले न ले| आज जो भी मुझे खबर देने आता है कहता है तोड़ी का बढ़िया जुगाड़ है आप देख लो ... जिससे मिलता हूँ, भूले से अगर उन्हें पता चल जाये कि अखबार में लिखते हैं| पहला शब्द, अरे खूब मिलता होगा | कहता हूँ  मिलता है, भाई कभी साथ में चलो, उन्हें क्या पता  लघु, दीर्घ सारी शंकाए अंदर फस जाती है जब खबर कि ललक होती है| ये फब्तियां, ये व्यंग, ये पूरी पत्रकारिता कौम को संडे मार्केट में बिकने वाले साबुन खड्डे की निगाह से देखना,,ये क्या है|  हम कोई पीपरमेंट या नड्डा हैं|  जो हमेशा बिकने के लिए ही टांगे जायेंगे,, लोगों के मन में पत्रकारों को लेकर ऐसी मानसिकता क्यों .. हमने तो गाँधी .. गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल और तिलक की पत्रकारिता डूब कर पढ़ी है ,, इसमें ये तोड़ी शब्द क्यों नहीं मिला| अब जो पीढ़ी पत्रकारिता में आ रही है उनमे ये तोड़ी छाया देखने को नहीं मिली है खासकर उनमे जो प्रिंट मीडिया में हैं| सबसे बड़ा सवाल कैसे सुधरेंगे ये हालात, लोगों को केवल कुछ चुनिंदा लोगों की प्रकृति ही दिखाई देती है .. और बाकि का त्याग कुछ भी नहीं है| जब लोग अपने घरों में आराम करते हैं तब यही पत्रकार उनकी चाय की चुस्की के साथ देश दुनिया का हाल दिखाने जाग रहा होता है | लोगों को सिलेंडर न मिले, यही पत्रकार खबर के माध्यम से पूरा खाद्य विभाग हिला देता है, लेकिन जब खुद के घर गैस खत्म हो तो बिस्किट खाकर सो जाता है | लोग ये कब समझेंगे कि पत्रकारिता नौकरी नहीं है जिसमे पत्रकार पैसा कमाते हैं .. पावभाजी कि दुकान वाले चाचा एक सिटी चीफ से अधिक पैसा कमाते हैं| यह जूनून है जिसके सामने पैसा महज़ जिंदगी जीने के लिए रोटी का जुगाड़ भर है | इससे ज्यादा कुछ नहीं .. मैंने तो ऐसे लोगों को भी देखा है जिन्होंने न कभी तोड़ी की, न कभी तोड़ीबाजों की निंदा की, जो आया गले से लगाया, आज जब पत्रकारिता कि पूरी कौम बदनाम होने को है|  ऐसे हालात में भी भ्रष्टाचार और घोटालों कि ख़बरें पढ़ने को मिलती है, दरअसल इन्हें लिखने वाले ही पत्रकारिता कि आत्मा हैं ..जिनसे आबाद है ये अमिट कौम ..

केवल लहरों को देखकर न करना, समुंदर की गहराई का फैसला
जहाँ तक नजर जाती है, सूरमाओं कि परछाई भर है
जब ये पन्ने उलटते हैं, तो ज्वारभाटे की लहर आती है
कभी कलम कि निब गड़ा दें, तो ज़लज़ला और सुनामी से कोहराम मच जाये
ये जिंदा हैं तब तक लोकतंत्र जिंदा है
वरना हर रोज ताबूत बनाने संसद में प्रस्ताव आते हैं

Sunday, January 15, 2012

कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ- देवेश तिवारी

बर्बर बरसती लाठियाँ, मेहनतकश मजलूमों पर
खून की नदियाँ बहती है, पतितपावन धरती पर
आवाम भी आज मौन है, कैसे इस खुनी मंज़र में
शोषित खुद ही चले चुभोने, अपनी छाती खंजर में

कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ

हर रोज कितनों की अस्मत, यूँ ही लूट ली जाती है
हर दिन फर्जी मुटभेड़ों की, गाथाएँ  सुनाई जाती है
धर्म, जाति और क्षेत्रवाद का, जहर घुलता जाता है
पाखंडी, श्वेत वस्त्र लादकर, गाँधीवादी कहलाता है

कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ

बंदूकों की नोक पर आज, गाँव जला दिए जाते हैं
बारूदों पर उलटे लेटे आदिवासी, माओ कहलाते हैं
जंगल खेत उजड़ने को है, उद्यमियों की चौपाल लगी है
और अन्नपूर्णा के भक्तों को, अब नोटों की प्यास लगी है

कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ

लोकतंत्र घुट-घुट मरता है, चंद तानाशाह के शिकंजो में
अब क्यों धार भुथियाने लगी, भारतीय सिंहों के पंजों में
अब राह दिखाने हमको न फिर, आजाद व गाँधी आयेंगे
लोभी जिंदगी में विलासी बनकर , हम यूँ ही मर जायेंगे

कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ 

Sunday, January 1, 2012

पिताजी मेरी अनकही आवाज....: देवेश तिवारी



पिता जी मै आभारी हूँ आपका, आपके कारण मुझे जीवन मिला
इस खूबसूरत दुनिया के पोखर में, एक नया कमल खिला 
मेरी हर चीज पर आपका अधीकार है
आपका हर आदेश मुझे हंसकर स्वीकार है

आपने मुझे पढाया अब तक, मुझे नई दिशा दिखाई
मेरे कारण आपने अपने, शौक से भी कर ली लड़ाई
आगे कुछ और दिन भी, आप मेरा साथ दे दीजिए
थोड़ा अपने ख्वाबो से, आप भी समझौता कीजिये

पिता जी आपकी परवरिश का मै, पूरा कर्ज चुकाऊंगा
आप न भी कहें तो ताउम्र आपके, हर रात पांव दबाऊंगा
मै अपनी रूचि से कुछ करना चाहता हूँ, वो मुझे करने दीजिए
बगावती स्वर नहीं बोलूँगा, सोंचने भर के लिए क्षमा कीजिये 

आप कहें तो मैं आपके, पुरे सपने साकार कर दूँगा
सारे जंहा की खुशियों से, झोली आपकी भर दूँगा
मगर आपकी सोंच ,इस तरह मुझ पर मत थोपीये
कुछ अलग करना चाहता हूँ मैं ,बेटा बनकर जरा सोंचिये 

मै कलाकार बनूँगा या फौजी, चित्रकार पत्रकार या, कुछ और भी
मुझे डाक्टर इंजीनियर मत बनाइये, दुनीया में है, काम और भी
करूँगा खेती अनाज उगाउँगा, भूखे  पेटों की प्यास बूझाऊंगा  
डाक्टर इंजीनियर अधिकारी ना सही, उन्नत किसान तो बनकर दिखाऊँगा 

देश की रक्षा करनी है मुझको, मुझे सीमा पर लहू बहाना है
माँ के दूध से भी  बढ़कर, माटी का कर्ज चुकाना है
पत्रकार बनकर लोगों की खातिर, लोगों से मुझको लड़ना है
समाज सेवा करते करते ,मुझको भी आगे बढ़ना है

क्या हुआ पिता जी जो, पड़ोसी जिलाधीश बन गया
चाचा की बेटी डाक्टर, और भाई इंजिनियर बन गया
मै भी कुछ करके आपका, सर फक्र से उठाऊँगा
कुछ नहीं बन पाया फिर भी, अच्छा इंसान बनकर दिखाऊंगा

आपके दबाव पर मै, यह अरुचिकर पढ़ाई करता हूँ
दिन रात किताबें चाटकर भी मैं, दूसरे पायदान पर रहता हूँ
मुझे रूचि नहीं इस पढ़ाई में मै, भीतर ही भीतर रोता हूँ 
आपका मनीमशीन बनने की खातिर, इस पढ़ाई को ढोता हूँ

सोंचता हूँ एसी मंजिल से ,राह भटक जाना ही अच्छा
जिल्लत उबाऊ इस जिंदगी से, मेरा मर जाना ही अच्छा
रुक जाता हूँ यही सोंचकर, कभी तो ये हालात बदलेंगे
मेरी जुबान पर दबी आवाज को, इशारों से ही आप समझेंगे

पिताजी आपका बेटा हूँ, आपके खिलाफ नहीं जाऊंगा
घर बाहर  के किसी कोने में, रो रो कर रह जाऊँगा

स्मृतियों की धुंधलाती यादें


स्मृतियों की  धुंधलाती  यादें निकलकर सामने छा जाने को है
और आज की अनचाही खुशियाँ पुरानी यादों में  धुंधलाने को है

कुछ बातें कहना सुनना उसकी ही यादों में खोकर जीना बड़ी चाहत है
अकुलित होकर डबडब आँखों से खुशियाँ छलकाना भी बड़ी आफत है

बड़े खुश हैं वो वो जिन्हें हंसना हमने सिखाया था
तब हमारे जीवन में भी आंशिक उनका साया था

क्या कुसूर था पूछा नहीं हिम्मत जवाब दे जाती थी
वो ही अक्सर  उलझन लेकर सामने चली आती थी

क्या पता कभी सामना होगा अब भी कुछ बातें बाकि है
संक्षिप्त जीवन की बारहमासी दास्ताँ  सुनाना बाकि है 

वो पल भी कहने हैं जो अक्सर  चिरागों से मैं  कहता था
उस कहानी को सुनकर वह भी हंसहंस रोकर जलता था   

क्या  कुछ नहीं धरती पर फिर  भी ख़ामोशी गहराती है
क्या बताएं फेसबुकिया मित्रों हमें किसकी याद जलाती है

एक पल को भी दीदार हो जाये तो चाँद देर से निकलता है
अगर  कुछ बातें हो जाये तो भोर का सूरज अंदर छिपता है

अब तो यही  काली रातें  हमेशा  साथ निभाएंगी
वो तो पूनम की चाँद हैं बस आएँगी चली जाएँगी


 क्या कहें उलझन की बदरी इस कदर छाई है
पुरनम आँखों में दूर तलक पसरी तन्हाई है

कोई चरागां इस बुझे  दिल में जले तो जले कैसे
खुशियाँ आक्रांताओं के आंगन में पले तो पले कैसे

जाने कितनी खुशियाँ आकर दहलीज पर लौट जाती है
खुशनसीब वो हैं जिन्हें यार की बस्ती में मौत आती है

हम तो आज भी किनारे पर ज़लज़ला थमने के इंतजार में हैं
नहीं पार होती उन्मादी दरिया वह भी समंदर के प्यार में हैं  

रौशनी की तलाश में कुछ पूरी-अधूरी, मेरी जिंदगी चली जा रही है
बेगैरत जुबां पर आहट न पाकर, ये गैरतमंद जिंदगी मरी जा रही है

बिना मूरत के देवालय में भला पुजारी क्या करेगा
तस्वीरों में खोया पगला देवेश तिवारी क्या करेगा 

एक चुस्की चाय की


कभी न मांगना किसी से, पैसा चाय पानी का
सुखद अन्त नहीं होगा, कभी भी इस कहानी का

बच्चों कि मिठाई, और पकवान रिश्वतदानों के
घोंट देते गला हमेशा, ईमानीयत अरमानों के

एक चम्मच पकवान के, सौ बद्दुआ इंसान के
एक चुस्की चाय की , गरीबों के हाय की  : देवेश तिवारी