Sunday, March 13, 2011

विप्लव ने हमें बुलाया है - देवेश तिवारी

यह वक़्त सहसा लेकर आज संताप का रेला आया है
विलाप का यह वक़्त नहीं है घोर अंघेरा छाया है

चाहे है बंदिशियाँ लाखों जुबानों पर सही
लेकिन उन्माद कि कसौटी का आखिरी यह पल नहीं

वीरानियों में भले ही सज न पाए आज महफ़िल
मुफलिसी के गोद बैठकर स्वप्न वैभव का देखता दिल

हर शांत भंवर के बाद हमेशा कोई सैलाब आया है          
फिर तो यह अवसर होगा विप्लव ने हमें बुलाया है

न तुम विद्रोह दबा ह्रदय में ऐसे अत्याचार सहो.
रणभेरी के बिगुल से पहले कास कमर तैयार रहो

आँसुओ कि बहती झड़ी से ह्रदय कि आग ना बुझने पाए
निर्णय लेकर चलो अभी कहीं विलम्ब न हो जाये

जंग लगी कटार ही सही जंगी हो मैदान जहाँ
शंखनाद कि बेला में नवयुग हो तैयार तैयार यहाँ

अब जलजला उठने लगा है युवाओं के आतुर मन में
ज्वाला क्रांती कि धधक उठी है उपेक्षित शोषित जन जन में

उस उददेश्य को पूर्ण करो जिसकी खातिर जन्म लिया
लज्जा न हो माता को फिर कैसे कपूत को जन्म दिया ...
                                                देवेश तिवारी

Tuesday, March 1, 2011

चले थे कहा से हमें जाना कहाँ था - देवेश तिवारी


कल तक माँ माँ होती थी पिता पिता हुआ करते थे
अब माँ ममी हो गई पिता डैड हो गए
पश्चिमी चकाचौंध में हम इतने खो गये
अपने सामाजिक मूल्यों को दबाकर नीचे सो गए

चले थे कहा से हमें जाना कहाँ था
मुझे नहीं लगता हमें आना यहाँ था

माँ कि ममता कल तक हमको शीतल लगती थी
बूढी  माँ कि वाही ममता अब उलझन लगती है
आधुनिकता कि चकाचौंध में ममता तिल तिल जलती है
माँ तेरे यह झरते आँसू किसकी गलती है

कल तक पिता का पसीना खून हुआ करता था
अब अपनी कुटिल पत्नी कि खातिर वाही खून जलाते हैं
पिता के पुण्य भवन को तोड़कर अब हाटल बनवाते हैं
पिता के अरमानों को रौंद हम औहदा दिखलाते हैं

कल दान धर्म और परोपकार से पुण्य किये जाते थे
अब भूखे पेट पर लत मरकर रोटी छीन लेते  हैं
निर्लज्जता कि दहलिज लांघकर कमाई नितदिन लेते हैं
पैमाने पर खड़े होकर सोचें मानवता को क्या देते हैं

कल तक कफन कि खातिर लोग खुद बिक जाया करते थे
अब दफनाए शव के गहने उखाड़  ले जाते हैं
दुखी दरिद्र सताए दिल पर हजार जख्म दे जाते हैं
परहित धर्म को गिरवी रखकर क्या उधार ले जाते हैं


होती थी लक्ष्मी पास तो तीर्थाटन को जाते थे
अब जब लक्ष्मी आती है तो डांस बार में जाते हैं
बाप बेटे साथ बैठकर जाम से जाम छलकते हैं
भूल बिसर कर मर्यादा हम जेंटलमैन बन जाते हैं
       चले थे कहा से हमें जाना कहाँ था
       मुझे नहीं लगता हमें आना यहाँ था
                                         देवेश तिवारी