Saturday, January 8, 2011

सपनों की फिल्म - संज्ञा जी ................




हर मन में बसे होते हैं सपने, हर रात में हमारी आँखों में बसते हैं सपने। लेकिन आज चलिये सब कुछ भूलकर आपको हम ऐसी रूमानी दुनिया में जाएँ जिसे हम सपनों की दुनिया कहते हैं....ख्वाबों की दुनिया कहते हैं... जहाँ न कुछ खोने को रहता है न कुछ पाने को। तो चलिये सपनों की सतरंगी दुनिया में चलें।



स्वप्न और स्वप्नावस्था से हम सभी कुछ समय के लिये वशीभूत से हो जाते हैं। दूसरी मज़ेदार बात ये है कि सपनों की फिल्म के हम स्वयं दर्शक और अभिनेता दोनों होते हैं। कभी कभी बड़ा आश्चर्य होता है कि जो घटनाएँ हमारे साथ कभी भूत या भविष्य में घटित नहीं हुई होती हैं वे भी हमें सपनों में दीखती हैं। हमारी सोच से भी अलग। शायद ऐसा इसलिये होता है कि कल्पना पर आधारित होने पर भी सपने स्पष्ट, भावनामय और नियंत्रण से परे होते हैं। वे प्रतिदिन के जीवन की तरह वास्तविक न होते हुए भी कभी कभी विचित्र रूप से वास्तविक व सच सिद्ध होते हैं। कहते हैं कि अधिकतर सपने अपने में कुछ न कुछ सार्थक बातें या अर्थ छिपाए रहते हैं। सपनों में अपने प्रियजनों, दुश्मनों किसी घटना या दुर्घटना, किसी की मृत्यु ऐसे न जाने कितने अच्छे-बुरे, सुखद या दुखद सपने हमें दिखाई देते हैं। सुखद सपनों की अनुभूति कुछ और ही होती है जिसे सिर्फ उस पल महसूस किया जा सकता है, वहीं दुर्घटना, मृत्यु या डरावने सपनों से हम सिहर से जाते हैं। ऐसे ही रंगबिरंगे सपने जो जीवन के उजियारे हैं जो तनहाई के सहारे हैं जो कभी सच और कभी झूठे होते हैं। ये हमारे बस की बात तो है नहीं कि हम मनचाहे सपनों का सौदा कर सकें।
अंधियारे के ये मोती जो भोर होते ही टूट जाते हैं आखिर क्यूं आते हैं हमारी नींदों में खलल डालने। आप भी सोचते हैं ना कि आखिर क्यों दीखते हैं हमें सपने। मनोवैज्ञानिक पहलू कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति बिना सपना देखे एक भी पल नहीं सोता। जागृत स्थिति में आँखें कुछ न कुछ देखती रहती हैं। मन में कई तरह के विचार और कल्पनाएँ घुमड़ते रहते हैं और न जाने कितने ही तरह के चित्र-विचित्र दृश्य दिखाते रहते हैं। नींद की अवस्था में सिर्फ हमारा शरीर सोता है और मन-मस्तिष्क के क्रियाकलाप, चिंतन, विचारो की कल्पनाओं की उड़ान चलती ही रहती है। मन-मस्तिष्क के यही क्रियाकलाप हमें सपनों के रूप में दिखाई देते हैं। सपने  बहुधा रचनात्मक होते हैं इसके प्रमाण आज भी मिलते हैं। कितने ही कवियों ने काव्य पंक्तियाँ सपनों में देखीं, लेखकों को कथानक मिले, संगीतकारों को सपनों में संगीत की लय सुनाई दी....इस तरह के कई प्रमाण हैं। एक प्रमाण अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध जानेमाने कवि सैमुअल टेलर कालरिज का है, जिन्होंने तीसरे पहर सोने के पहले अंतिम शब्द कहे थे, ‘‘यहाँ कुबला खान ने एक महल बनाने का आदेश दिया था’’, तीन घंठे की नींद के बाद जब वे जागे तो उनके मस्तिष्क में कविता की 300 पक्तियाँ अंकित थीं और जागते ही उन्होंने कुबला खान नामक ये प्रसिद्ध कविता लिखनी शुरू कर दी। उन्होंने सिर्फ 54 पंक्तियाँ ही लिखी थीं कि उनके घर में कोई मिलने वाला आ गया। एक घंटे बाद जब वो गया और वे फिर से लिखने बैठे तो सारी कविता उनके दिमाग से लुप्त हो गई थी और लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें आगे की पंक्तियां याद नहीं आईं।

कभी कभी हम सभी के साथ ऐसा ही होता है कि आँख खुली या सुबह उठे तो हम सपना भूल चुके होते हैं मगर तकलीफ तो तब होती है जब हम कोई सुखद सपना हम भूल जाएँ।
सुख दुख देने को आता है, सपने मिटने को बनते हैं।
आने-जाने, बनने-मिटने का ही नाम जगत ये सुंदर।
अरे क्या हुआ यदि तेरा सुख,
स्वप्न, स्वर्ग ढह गया अचानक।
करने को निर्माण मगर, जग में वीरान अभी बाकी है।
स्वप्न मिटे सब लेकिन
सपनों का अभिमान अभी बाकी है।
जगाने, चुटकियाँ लेने, सताने कौन आता है,
                                                                                    ये छुपकर ख़्वाब में अल्लाह जाने कौन आता है।
सपने टेलीपैथी के रूप में संदेशवाहक का भी कार्य करते हैं। सपने भविष्यसूचक होते हैं। कभी कभी सपने हमें अपनी भविष्यवाणी से घबरा भी देते हैं। प्रायः मौत संबंधी सपने ऐसे ही होते हैं। इस तरह के अनेक सपने हैं जो सच हुए। नेपोलियन वाटरलू का युद्ध हार गए थे और इस युद्ध के ठीक पहले उन्होंने एक सपना देखा था कि एक काली बिल्ली उनकी सेना के बीच एक एक करके सभी दोस्तों के बीच घुस रही है। इस तरह की कई घटनाएँ हैं जिनमें लोगों ने सपने द्वारा  किसी सुदूर स्थान में घट रही घटनाओं का आभास प्राप्त किया और हजारों मील दूर स्थित अपने प्रियजनों के हाल जाने। इस तरह के सैकड़ों प्रयोग अब विश्वविख्यात हो चुके हैं जिनकी वैज्ञानिक पुष्टि कियक जाने के बाद उन्हें सही भी पाया गया। पूर्वाभास कराने वाले सपनों को वैज्ञानिक अतेन्द्रिय सपने कहते हैं और विज्ञान ऐसे सपनों को दूसरे टाइम जोन, समानान्तर संसार या पृथक आयाम की संज्ञा देता है।
 नींद के आगोश में दीखने वाले सपने जो भले ही हमारे लिये साधारण हों या जिन्हें हम भूल जाना चाहते हैं या भूल जाते हैं, पर वैज्ञानिकों ने इन्हें साधारण नहीं समझा है। आइंस्टीन ने जब सापेक्षतावाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया और विश्व के रूप और उसकी क्रियाओं को गणित के आधार पर सिद्ध किया तब से विज्ञान जगत में ये चर्चा उठ खड़ी हुई कि भूतकाल की घटनाओं को फिर से असली रूप में देख जाना संभव है क्या? आइंस्टीन ने पहली बार इस संदर्भ में एक नवीन तथ्य प्रतिपादित किया कि घटनाक्रम भले ही समाप्त हो चुके हों पर उनकी तरंगें विश्व ब्रम्हांड में फिर भी रहती हैं। आउटर टेन नामक अपने ग्रंथ में बुल्क लिखते हैं कि भूत और भविष्य के सपने उतने स्पष्ट नहीं होते क्योंकि ये अति सूक्ष्म अवस्था में रहते हैं जो हमारी स्थूल आँखों की जीवन सीमा से परे होता है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कठपुतली के नृत्य में पुतलों से बँधे धागों के न दीखने से दर्शकों को ये भ्रम हो जाता है कि निर्जीव काठ के पुतले अपने आप ही नाच रहे हों। पतंग का धागा पतंगबाज़ के हाथों में होता है, पर दूर से देखने पर पतंग निराधार उड़ती हुई दिखाई देती है। यही बात भूत और भविष्य की है। मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक दोनों ही ये मानते हैं कि सपने यथार्थ की अभिव्यक्ति करा सकते हैं।
ख़ैर ये तो रही भूत और भविष्य की बातें....फिलहाल वर्तमान की बातें करें आखिर सपने तो सपने ही होते हैं....नींद खुली और टूट गए। नीरज ने सपनों के बारे में लिखा है.....
कुछ नहीं ख्वाब था सिर्फ एक रंगीनी का,
धरती की ठोकर खाते ही जो टूट गया।
मैं अमृत भरा समझे था स्वर्ण कलश जिसका,
कुछ नहीं एक विषघट था गिरकर फूट गया।
सपनों का ये सफर तो हम यहीं ख़तम कर रहे हैं, सपने तो सपने होते हैं पर इन सपनों को जागी आँखों से देखने पर, हिम्मत संजोकर पूरा कर लें तो सपनों की दुनिया को हकीकत की दुनिया में हम स्वयं ही बदल सकते हैं। बस इतना ज़रूर कहेंगे कि अगर आपने जागी आँखें से कोई सपना देखा है तो उसे पूरा करने के लिये तुरंत जुट जाइये.....हमारी दुआएँ आपके साथ हैं।   साभार : संज्ञा जी..http://cgswar.blogspot.com/...........