Saturday, February 23, 2013

छत्तीसगढ़ के 2 लाख युवा शिक्षाकर्मियों का भविष्य अधर में

छत्तीसगढ़ में लगभग दो लाख शिक्षाकर्मियों की हड़ताल के बीच मंगलवार को एक और शिक्षाकर्मी ने दम तोड़ दिया. शिक्षाकर्मी संगठन का आरोप है कि कायाबाल, बस्तर के शिक्षक विपिन चंदेल के परिजनों के पास इलाज के पैसे नहीं थे और बीमारी की हालत में उनकी मौत हो गई.

छत्तीसगढ़ के लगभग दो लाख शिक्षाकर्मी शिक्षा विभाग में अपने संविलयन को लेकर पिछले कई दिनों से राजधानी रायपुर में प्रदर्शन कर रहे हैं. पिछली बार चुनाव के समय राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने घोषणा की थी कि हर साल 20 प्रतिशत शिक्षाकर्मियों का शिक्षा और पंचायत विभाग में संविलयन किया जायेगा. लेकिन मुख्यमंत्री अपने वादे को भूल गये.

शिक्षकों की हड़ताल के बीच एक के बाद एक शिक्षक या तो इलाज के अभाव में मौत के मुंह में समा रहे हैं या खुद ही आत्महत्या कर रहे हैं. बालोद में एक शिक्षाकर्मी संजय चतुर्वेदानी की हार्ट अटैक से मौत हो गई, जब उसने घर पंहुचकर निलंबन का नोटिस देखा. संजय के घर में सात लोग हैं और वह अकेला पूरे परिवार का भरण पोषण करता था. इस घटना के 24 घंटे भी नहीं हुए थे कि बालोद जिले के हर्राखेमा गांव में शिक्षाकर्मी की पत्नी गायत्री ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. वर्ग तीन के शिक्षाकर्मी पारसनाथ गिल्लहरे उस समय रायपुर के धरना स्थल में बीवी बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए आंदोलन कर रहा थे, उधर घर में बर्खास्तगी का नोटिस उनकी पत्नी को मिला. गायत्री यह दबाव बर्दाश्त नहीं कर पाई और रोज रोज मरने से एक दिन मर जाना गायत्री को बेहतर लगा.

रायपुर का सप्रे शाला मैदान पिछले कई दिनों से शिक्षाकर्मियों से भरा हुआ है. मुख्यमंत्री जी वादा निभाओ, संविलियन तो देना होगा इन नारों के साथ पूरे प्रदेश के शिक्षाकर्मी सड़कों पर हैं. मैदान में दिन भर भाषणों का दौर चलता है,कांग्रेस के नेता आते हैं भाषण देते हैं और चले जाते हैं. हर रोज सरकार की ओर से सार्थक निर्णय की उम्मीद के साथ रात हो जाती है. फिर भी शिक्षाकर्मी घर नहीं जाते.

सड़क पर अखबार का बिझौना बिछाकर और आसमान की चादर लपेटकर शिक्षाकर्मी सो जाते हैं, स्ट्रीट लाईट की रोशनी आंखों में न आए इसके लिए दुपटटा और रूमाल से चेहरा ढक लिया जाता है. किसी तरह ठण्ड में ही सही, रात गुजर जाती है. सुबह फिर संविलियन के फैसले की उम्मीद लिए जाग जाते हैं और आंदोलन शुरू हो जाता है.

अविभाजित मध्यप्रदेश में जब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री हुआ करते थे, उस दौरान जुलाई 1994 से अप्रैल 1994 तक 500 रूपए से 1 हजार रूपए के सिमित मानदेय में शिक्षाकर्मियों की पहली बार भर्ती हुई. सन 1996 में भोपाल में शिक्षाकर्मियों ने उग्र आंदोलन किया, लाठियां खाई तब जाकर जुलाई 1998 में उनकी दोबारा नियुक्ति हुई. अबकी बार नया वेतन 2 हजार से 35 सौ रूपए दिया जाने लगा. यहां यह जानना भी जरूरी है कि शिक्षाकर्मियों को महंगाई भत्ता नहीं दिया गया.

2000 में छत्तीसगढ़ राज्य बना. प्रदेश के विकास के साथ शिक्षाकर्मियों को भी सरकार से उम्मीदें थी की उनकी स्थिति में कोई न कोई सुधार जरूर आएगा. मगर अफसोस 2003 में उन्हें फिर से सड़क पर आना पड़ा. भूख हड़ताल, आमरण अनशन के बाद भी बात नहीं बनी तो मुख्यमंत्री निवास का घेराव करना पड़ा. आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज हुआ और फिर कथित महंगाई भत्ते के साथ 2700 रूपए से 38 सौ रूपए तक वेतन मिलने लगा.

2003 में भाजपा की सरकार बनी वेतन बढ़ोत्तरी के लिए समय समय पर आंदोलन होते रहे. लेकिन भाजपा ने भी शिक्षाकर्मियों की मांग नहीं सुनी. 2006 में शिक्षाकर्मियों ने 28 दिन तक स्कूल का बहिष्कार करके आंदोलन किया. सरकार ने दमन के सारे रास्ते अपनाए, अभी की तरह निलंबन और बर्खास्तगी के नोटिस थमाए गए. शिक्षाकर्मियों को कई-कई दिनों के लिये जेल भेज दिया गया. 1 अप्रैल 2007 में नया वेतनमान तय हुआ और 1000 रुपये की बढोत्तरी हुई.

2 दिसंबर 2007 को राज्य के मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह ने घोषणा की कि हर साल शिक्षा विभाग, आदिम जाति कल्याण विभाग और पंचायत विभाग में 20-20 प्रतिशत शिक्षाकर्मियों का संविलियन किया जाएगा. यह बातें भाजपा के घोषणा पत्र में भी शामिल थी. लेकिन दूसरी पारी में रमन सिंह को अपना वादा याद नहीं रहा. 2009 में फिर 17 दिनों तक आंदोलन चला. इस बार 15 प्रतिशत अंतरिम राहत के साथ नया वेतनमान देने की घोषणा हुई. आंदोलन रोक दिया गया.

1 नवंबर सन 2011 में फिर 7 दिनों का आंदोलन चला. शिक्षाकर्मियों को एस्मा लगाकर बर्खास्त किया गया और शिक्षाकर्मियों का वेतन काट दिया गया. इस बार मूल वेतनमान में 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी के साथ आंदोलन शांत कर दिया गया. लेकिन संविलियन का वादा आज भी वादा है, जिसको लेकर शिक्षाकर्मी फिर से हड़ताल पर है.

शिक्षाकर्मियों की संघर्ष समिति के संचालक वीरेन्द्र दूबे का कहना है कि मामला हमारे अस्तित्व का भी है. हमें यह नहीं पता कि हम किस विभाग के कर्मचारी हैं. पंचायत विभाग आदेश तो देता है लेकिन वेतनमान के मामले में पंचायत विभाग का कानून काम नहीं करता. शिक्षाकर्मियों को जिला शिक्षा अधिकारी भी आदेश देते हैं. लेकिन इनका वेतन पंचायत विभाग से आता है. इस तरह दो विभागों के संयुक्त नौकर दोनों विभाग के होकर भी कहीं के नहीं हैं.

शिक्षा का अधिकार कानून के मुताबिक समान काम करने वालों को समान वेतन दिया जाना चाहिए. राज्य सरकार ने शिक्षा का अधिकार तो लागू किया लेकिन शिक्षाकर्मियों को विभाग के शिक्षकों की तरह वेतन का लाभ नहीं दिया. शिक्षा का अधिकार कानून में पैराटिचर रखने की मनाही है, इसलिए सरकार ने शिक्षाकर्मियों का नाम बदलकर पंचायत शिक्षक कर दिया. 



कहने को विपक्ष ने शिक्षाकर्मियों के मुद्दे पर दो दिन विधानसभा नहीं चलने दिया. विपक्ष की राजनीति शिक्षाकर्मियों के आंदोलन के रथ पर बैठकर सरपट दौड़ रही है. मुख्यमंत्री वादा निभाने की बात पर गेंद शिक्षा एवं पंचायत मंत्री के पाले में डाल देते हैं. जबकि पंचायत एवं शिक्षा मंत्री मुख्यमंत्री के आदेश को मानने की बात कहते हैं. सरकार ने कहा है कि अगर शिक्षाकर्मियों ने सरकार की सलाह मान कर काम पर लौटना स्वीकार नहीं किया तो सरकार कड़ा रुख अपनाएगी. लेकिन ऐसी चेतावनियों से अलग शिक्षाकर्मियों का आंदोलन जारी है

Friday, February 15, 2013

जर्नलिस्म फ्रस्टेशन

पत्रकारिता के दौरान एक किताब पढ़ाई गई थी पत्रकारिता के मूल्य और सिद्धांत..काश की पाठ्यक्रम में उसे शामिल करने की बजाय ..प्रेस चाटुकारिता,प्रेस जुगाड़, प्रेस तिकड़म नाम की किताम मेरे हाथ लग जाती तो हम पहले से तैयार होते...सोंचा था कभी पत्रकारिता के बारे में नहीं लिखुंगा..बिल्कुल उलट नजर आता है यहां आने के बाद..प्रेस में काम करना बड़ा आसान है यहां सर्वाइव करना बड़ा मुश्किल है..स्थायीत्व का अभाव साफ तौर पर देखने को मिलता है..प्रिंट और इलेक्ट्रानिक के साझा अनुभव की बात करूं तो प्रेस में पत्रकारिता के गुर मार्नींग मिटींग में नहीं बल्की साढ़े 11 बजे रात को पार्किंग में ​सिखने को मिलता है। कैसे एक संपादक किसी रिपोर्टर के पूरे कैरीयर को एक मिनट में धनिया कर सकता है। कैसे एक ईमानदार रिपोर्टर की लगाने के लिए तमाम पात्र भी बुन दिए जाते हैं। कैसे जी सर, जी सर, जी जी सर , ओके सर , राईट सर, ओके सर से आपकी प्रगती होती है इसे भी देखने का मौका मिला, लड़कीयां परोसने से लेकर पैसा पंहुचाने सब्जी भाजी पंहुचाना, रिर्जवेशन कराना और ड्राईवर तक बनते बनाते रहना पड़ा है इस पत्रकारिता जमात को केवल सर्वाइव करने के लिए..यही चिजें आपके इंक्रिमेंट से लेकर प्रमोशन को तय करती हैं। खबरों का रूकना झपना दिखना सबकुछ देख लिया ..बहुत कम तजुर्बे में तजुर्बेकारों का घंटो सानिध्य मिला नतिजा है कि आधा ही समझ पाया हूं..फ्रस्टेट होने का मन नहीं करता , मन लगाकर काम करने का मन करता है, लेकिन अचानक से एक आभासी आवरण आपको समेट लेता है ऐसा आवरण जो आपके काटे न कटेगा कभी..क्या वजह है कि हर साल एक शहर में यदि 6 पत्रकार बनते हैं तो उनकी संख्या अगले ही साल 3, चार साल बाद 2 , 10 साल बाद 1 ​ही रह जाती है..ये तमाम बाते हैं.इतना भटका हुआ है सबकुछ की समझ नहीं आता...अगर आप पत्रकारिता को मिशन सोंचकर पंहुचे हैं तो आपको बहुत जल्द अहसास करा दिया जाता है कि यह दरअसल कमिशन है आने गलती से मीशन पढ़ लिया था, विज्ञापन बटोरने से लेकर प्रभावशाली लोगों को अपना चेहरा भर दिखा देने की होड़ लगी है, जनता से सरोकार किसान मजदूर के बारे में सोंचना आसमान में थूकने जैसा है टेलीवीजन पत्रकारिता में..क्या हो रहा है..आईना देखने में शर्म महसूस होने लगा है कि हू आई एम..क्या विजन है क्या कर रहा हूं , क्या करना था..चक्रव्यूह में अभिमन्यू की तरह शहीद होना बेहतर लगता है यही वजह है भागा नहीं जाता..संपादक और पत्रकार का भाई भाई का रिश्ता सुना था..अरे बीती बात है देशबन्धु जमाने की, अब सर और जुनियर का रीलेशन है जिसे मेंटेन करने पापड़ बेलना होता है..इसे लिखने का मकसद मात्र इतना है कि पत्रकारिता के सिलेबस में तमाम नैतिक सामजिक मूल्यों के साथ एक किताब प्रेस की पार्किंग या हाउ टू सर्वाइव इन जर्नलिज्म जैसा कुछ आना चाहिए तब जाकर काम बनेगा और पत्रकारिता के संस्थान अच्छे पत्रकार तैयार कर पाएंगे। इस बारे में लिखा पढ़ा नहीं गया लेकिन लिखा जाना चाहिए.किसी अनुभवी पत्रकार का ध्यान इसकी ओर आए तो किताब जरूर लिखें इस विषय पर वेल सेलिंग होगी मेरा दावा है अगर पूरी तरह सच लिखा जाए..हम कहीं नहीं जाएंगे यहीं रहेंगे इसी जगह जैसा बनेगा..कम्यूटर की पढ़ाई इस दिन की लिए नहीं छोड़ी की पिठ दिखाकर निकल लें..जिंदा थे, जिंदा हैं और जिंदा रहेंगे...पूरी कोशिश के साथ ...​जीने की ...: देवेश तिवारी अमोरा