Wednesday, January 2, 2019

कैसे खरसियां के कुरूक्षेत्र में अभिमन्यू जीत गया : देवेश तिवारी अमोरा


यह लिखने में थोड़ी देर है मगर सवाल अनसुलझा रहकर यह प्रसंग भीतर ही दफ्न न रह जाए यह खरसियां के इतिहास के लिए लिखा जाना जरूरी है। 
सवाल कई हैं.. क्या खरसियां का चुनाव बेहद आसान था.. या खरसियां कांग्रेस का गढ़ था इसलिए कांग्रेस जीत गई.. या प्रदेश के अंडरकरंट की तरह ही खरसियां में भी अंडरकरंट नजर आया.. चुनाव के दौरान कई बार खरसियां जाने के बाद और सतत वहां के जानकारों से संपर्क में रहते हुए यह कहा जा सकता है कि, यह चुनाव दिलचस्प रहा..इस चुनाव में जीत का अंतर पहले की तुलना में कम हुआ..युवा आईएएस ओपी चौधरी और विधायक उमेश पटेल के इस चुनाव को हमेशा याद किया जाएगा, ठीक उसी तरह जैसे अर्जुन सिंह के सामने दिलिप सिंह जूदेव, लखीराम अग्रवाल के सामने नंदकुमार पटेल चुनाव लड़े थे.. पुरानी कहानियां अपनी जगह कायम रहेंगी..मगर 2018 का चुनाव अपनी तरह से याद किया जाएगा। इस चुनाव में बीजेपी ने युवा आईएएस ओपी चौधरी को चुनाव मैदान में उतारा था.. मगर क्या केवल ओपी चौधरी अकेले उस सीट पर चुनाव लड़ रहे थे।
चुनाव के दौरान उमेश पटेल अभिमन्यू की भूमिका में विरोधी दल के चक्रव्यूह को भेदने की कोशीश कर रहे थे.. ओपी चौधरी सत्ता के जिस सुपर सीएम के कैंडीडेट माने जा रहे थे..उनके सामने प्रशासनिक महकमें में भयाक्रांत नेता हामी भरने से इतर कुछ नहीं करते थे..ओपी चौधरी को चुनाव आयोग धृतराष्ट्र की भूमिका में कई उल्लंघंन पर एक नोटिस दे रहा था। कभी  नंदकुमार पटेल के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले बोतलदा परिवार के बालकराम पटेल, उपेक्षा का आरोप लगाते हुए द्रोणाचार्य की भूमिका में थे.. ईप लाल चौधरी​ भिष्म पितामह, रविन्द्र पटेल सबकुछ जानते हुए कर्ण बने हुए थे.. दुर्योधन और दुष्शासन सत्ता के वे सभी हथकंडे थे, जो प्रशासन से लेकर आर्थिक आधार पर किसी सीट को जीत लेने के लिए कुछ भी करने को आमादा थी..

     चुनाव के दौरान नगदी से लेकर टी शर्ट, शेविंग किट से लेकर साड़ी और हर वो संसाधन जो चुनाव को प्रभावित कर सकता था.. वह बांटने का प्रयास हुआ..एक तरफ सतरंगी वीडियो ​के जरिए ओपी चौधरी युवा जनमानस में अपनी छाप छोड़ने की कोशीश कर रहे थे, उनके पास बताने के लिए कलेक्टरी पद से दिया हुआ इस्तिफा था..माटी की मोहब्ब्त में वे लाल हो गए थे.. ओपी चौाधरी के साथ के​जरिवाल पैटर्न में कैंपेन करने वाले युवाओं की फौज थी..आईटी टीम, सर्वे टीम..वीडियो ग्राफिक्स..पेड रणनीतिकार..प्रशासनीक तंत्र क्या नहीं था.. एक पल को ऐसा भी लगा कि, ओपी चौधरी चुनाव जीत रहे है.. फिर ऐसा क्या हुआ कि, ओपी चौधरी हार गए।
     ओपी चौधरी और उमेश पटेल के कैंपेन तरीके में सबसे बड़ी असमानता यह थी कि, ओपी हाईटेक तरीके से धुंआधार अंदाज में चुनाव लड़ रहे थे..भिष्म, द्रोण सारे सियासी सूरमा उनके साथ थे। सरकारी महकमे के चक्रव्यूह में उमेश पटेल फंसे थे..मगर उनके पास पिता की राजनीतिक विरासत के साथ उनके डीएनए में पिता के व्यवहार का नैसर्गिक गुण भी था.. लो प्रोफाईल, बगैर तामझाम के संवेदनाओं के साथ वे मैदान में डटे रहे। उमेश पटेल पिता के साथ और पिता के बाद खुद विधायक रहते हुए खरसियां की तासीर को समझ चुके थे.. जनमानस के भाव को पढ़ चुके थे.. और यह भी जानते थे कि, चुनाव में जीत के लिए संसाधन के साथ साथ सीधा जुड़ाव जरूरी है। ओपी लगातार सोनिया और राहुल गांधी के बहाने कांग्रेस को परिवारवाद का पोषक बताते.. और जब यही सवाल खरसियां में बार बार कहा जाता तो ईशारा उमेश पटेल की ओर हो जाता था। नंदकुमार पटेल का बेटा होने के नाते उमेश पटेल संवेदनावश पहला चुनाव जीते गए..मगर दुसरे चुनाव में उमेश ने अपने आप को स्थापित किया.. .और चुनाव अपने सोच और कार्यकर्ताओं के ​सही जगह पर खड़े होने की वजह से जीत आए.. इस चुनाव ने ओपी को हराया मगर भविष्य के लिए जमीनी पर खड़े रहने की सीख दी.. इस चुनाव ने उमेश पटेल को जिताया मगर मार्जिन कम कर जनाधार कम होने का भय दिखादिया..खरिसयां के कुरूक्षेत्र में अभिमन्यु लड़ा लड़ता रहा और जीत गया.