Friday, February 15, 2013

जर्नलिस्म फ्रस्टेशन

पत्रकारिता के दौरान एक किताब पढ़ाई गई थी पत्रकारिता के मूल्य और सिद्धांत..काश की पाठ्यक्रम में उसे शामिल करने की बजाय ..प्रेस चाटुकारिता,प्रेस जुगाड़, प्रेस तिकड़म नाम की किताम मेरे हाथ लग जाती तो हम पहले से तैयार होते...सोंचा था कभी पत्रकारिता के बारे में नहीं लिखुंगा..बिल्कुल उलट नजर आता है यहां आने के बाद..प्रेस में काम करना बड़ा आसान है यहां सर्वाइव करना बड़ा मुश्किल है..स्थायीत्व का अभाव साफ तौर पर देखने को मिलता है..प्रिंट और इलेक्ट्रानिक के साझा अनुभव की बात करूं तो प्रेस में पत्रकारिता के गुर मार्नींग मिटींग में नहीं बल्की साढ़े 11 बजे रात को पार्किंग में ​सिखने को मिलता है। कैसे एक संपादक किसी रिपोर्टर के पूरे कैरीयर को एक मिनट में धनिया कर सकता है। कैसे एक ईमानदार रिपोर्टर की लगाने के लिए तमाम पात्र भी बुन दिए जाते हैं। कैसे जी सर, जी सर, जी जी सर , ओके सर , राईट सर, ओके सर से आपकी प्रगती होती है इसे भी देखने का मौका मिला, लड़कीयां परोसने से लेकर पैसा पंहुचाने सब्जी भाजी पंहुचाना, रिर्जवेशन कराना और ड्राईवर तक बनते बनाते रहना पड़ा है इस पत्रकारिता जमात को केवल सर्वाइव करने के लिए..यही चिजें आपके इंक्रिमेंट से लेकर प्रमोशन को तय करती हैं। खबरों का रूकना झपना दिखना सबकुछ देख लिया ..बहुत कम तजुर्बे में तजुर्बेकारों का घंटो सानिध्य मिला नतिजा है कि आधा ही समझ पाया हूं..फ्रस्टेट होने का मन नहीं करता , मन लगाकर काम करने का मन करता है, लेकिन अचानक से एक आभासी आवरण आपको समेट लेता है ऐसा आवरण जो आपके काटे न कटेगा कभी..क्या वजह है कि हर साल एक शहर में यदि 6 पत्रकार बनते हैं तो उनकी संख्या अगले ही साल 3, चार साल बाद 2 , 10 साल बाद 1 ​ही रह जाती है..ये तमाम बाते हैं.इतना भटका हुआ है सबकुछ की समझ नहीं आता...अगर आप पत्रकारिता को मिशन सोंचकर पंहुचे हैं तो आपको बहुत जल्द अहसास करा दिया जाता है कि यह दरअसल कमिशन है आने गलती से मीशन पढ़ लिया था, विज्ञापन बटोरने से लेकर प्रभावशाली लोगों को अपना चेहरा भर दिखा देने की होड़ लगी है, जनता से सरोकार किसान मजदूर के बारे में सोंचना आसमान में थूकने जैसा है टेलीवीजन पत्रकारिता में..क्या हो रहा है..आईना देखने में शर्म महसूस होने लगा है कि हू आई एम..क्या विजन है क्या कर रहा हूं , क्या करना था..चक्रव्यूह में अभिमन्यू की तरह शहीद होना बेहतर लगता है यही वजह है भागा नहीं जाता..संपादक और पत्रकार का भाई भाई का रिश्ता सुना था..अरे बीती बात है देशबन्धु जमाने की, अब सर और जुनियर का रीलेशन है जिसे मेंटेन करने पापड़ बेलना होता है..इसे लिखने का मकसद मात्र इतना है कि पत्रकारिता के सिलेबस में तमाम नैतिक सामजिक मूल्यों के साथ एक किताब प्रेस की पार्किंग या हाउ टू सर्वाइव इन जर्नलिज्म जैसा कुछ आना चाहिए तब जाकर काम बनेगा और पत्रकारिता के संस्थान अच्छे पत्रकार तैयार कर पाएंगे। इस बारे में लिखा पढ़ा नहीं गया लेकिन लिखा जाना चाहिए.किसी अनुभवी पत्रकार का ध्यान इसकी ओर आए तो किताब जरूर लिखें इस विषय पर वेल सेलिंग होगी मेरा दावा है अगर पूरी तरह सच लिखा जाए..हम कहीं नहीं जाएंगे यहीं रहेंगे इसी जगह जैसा बनेगा..कम्यूटर की पढ़ाई इस दिन की लिए नहीं छोड़ी की पिठ दिखाकर निकल लें..जिंदा थे, जिंदा हैं और जिंदा रहेंगे...पूरी कोशिश के साथ ...​जीने की ...: देवेश तिवारी अमोरा

1 comment:

  1. हिम्मत का काम है बिना चाटुकारिता के पत्रकरिता करना...

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