Tuesday, November 20, 2012
Wednesday, April 4, 2012
देंवताओं का फ्लैक्सीकरण
सबसे बड़ा धर्म मानवता का, सांई बाबा भी कहते थे, मानवता मतलब किसी मानव को पीड़ा न हो। होता पूरा उलट है, हर गुरूवार भक्तों की बढ़ती तादात और सड़क के बीचो—बीच निजी स्वार्थ से बनाए गए मंदिरों के कारण पूरा रास्ता जाम हो जाता है। एंबुलेंस निकलने की जगह भी नहीं होती तो मानवता भूल ही जाइए।
सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक जगह पर किसी भी तरह के मंदिर निर्माण पर पूरी तरह रोक लगा रखी है। इसके बाद भी इसे श्रद्धालुओं की भक्ती कहिए या दो कदम चलने में कामचोरी घर के पास वाले चौक पर ही पर्सनल मंदिर बनवाना है।
मंदिर भी बन गया, यहां तक ठीक, अब दान पेटी में अनाप शनाब चंदा आसपास फूल वाले, चप्पल स्टैंड,सायकल स्टैण्ड अगरबत्ती, नारियल की दुकान से लोगों को खासा रोजगार भी मिलता है लेकिन दुकान लगाने की परमीशन इस शर्त पर की जहां दुकान लगाया जा रहा है उस जगह के लिए रेंट देना होगा, गलत मत समझिए यह दुकानदार की स्वेच्छा से नहीं उन्हें स्थापीत करने वाले भक्तों की स्वेच्छा से देना होगा।
इन सबसे इतर बात दरअसल जो कहना चाहता हूं वह यह कि, देंवताओं के नाम पर हर चौक चौराहे मोहल्ले में तन गए फ्लैक्स। इसमें जितनी बड़ी नेताओं और प्रसाद वितरण के आर्गनाइजरों की फोटु होती है। उसका एक तिहाई छोटा सा भाग भगवान के लिए आरक्षित कर दिया जाता है। आर्गनाइजरों की विशालकाय हांथजोड़कर माथे में तिलक रंगी लाल सफेद तिनरंगी गमझे वाली फोटु। यह कुछ दिनों तक चिपके रहने के बाद फटकर लोगों के पैरो तले रौंदाए किसे परवाह। फ्लैक्स के निचे फलां पर्व की शुभकामनांए। हद तो तब हो गई जब हमारे बिलासपुर के एक नगर पंचायत के नेता ने चुनाव जितते ही सांई बाबा की भक्ती को भुनाने मंदिर निर्माण से लेकर पालकी यात्रा का प्रबंध कर दिया।
देश में आस्था के नाम पर राजनीति पहली बार नहीं। भगवान श्री राम को तो कुछ ने खुब फुटकर कराया है। बात महल भक्ति तक सीमित हो तो भी अच्छा था। इनकी आड़ में अपनी पब्लीसिटी का जो जाल फैलाया है यह घातक है। देंवताओं की भक्ति भारत में आम बात है उसका श्रेय लेने के लिए मची होड़ से आपत्ति है।
ईश्वर अपने भक्तों को सदबुद्धी दो कि आपका नाम लें, और लोगों को प्रेरणां भी दें, लेकिन आपके नाम पर अपनी पहचान बनाने का पब्लीसिटी गेम कहां तक जायज है।
सबसे बड़ा धर्म मानवता का, सांई बाबा भी कहते थे, मानवता मतलब किसी मानव को पीड़ा न हो। होता पूरा उलट है, हर गुरूवार भक्तों की बढ़ती तादात और सड़क के बीचो—बीच निजी स्वार्थ से बनाए गए मंदिरों के कारण पूरा रास्ता जाम हो जाता है। एंबुलेंस निकलने की जगह भी नहीं होती तो मानवता भूल ही जाइए।
सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक जगह पर किसी भी तरह के मंदिर निर्माण पर पूरी तरह रोक लगा रखी है। इसके बाद भी इसे श्रद्धालुओं की भक्ती कहिए या दो कदम चलने में कामचोरी घर के पास वाले चौक पर ही पर्सनल मंदिर बनवाना है।
मंदिर भी बन गया, यहां तक ठीक, अब दान पेटी में अनाप शनाब चंदा आसपास फूल वाले, चप्पल स्टैंड,सायकल स्टैण्ड अगरबत्ती, नारियल की दुकान से लोगों को खासा रोजगार भी मिलता है लेकिन दुकान लगाने की परमीशन इस शर्त पर की जहां दुकान लगाया जा रहा है उस जगह के लिए रेंट देना होगा, गलत मत समझिए यह दुकानदार की स्वेच्छा से नहीं उन्हें स्थापीत करने वाले भक्तों की स्वेच्छा से देना होगा।
इन सबसे इतर बात दरअसल जो कहना चाहता हूं वह यह कि, देंवताओं के नाम पर हर चौक चौराहे मोहल्ले में तन गए फ्लैक्स। इसमें जितनी बड़ी नेताओं और प्रसाद वितरण के आर्गनाइजरों की फोटु होती है। उसका एक तिहाई छोटा सा भाग भगवान के लिए आरक्षित कर दिया जाता है। आर्गनाइजरों की विशालकाय हांथजोड़कर माथे में तिलक रंगी लाल सफेद तिनरंगी गमझे वाली फोटु। यह कुछ दिनों तक चिपके रहने के बाद फटकर लोगों के पैरो तले रौंदाए किसे परवाह। फ्लैक्स के निचे फलां पर्व की शुभकामनांए। हद तो तब हो गई जब हमारे बिलासपुर के एक नगर पंचायत के नेता ने चुनाव जितते ही सांई बाबा की भक्ती को भुनाने मंदिर निर्माण से लेकर पालकी यात्रा का प्रबंध कर दिया।
देश में आस्था के नाम पर राजनीति पहली बार नहीं। भगवान श्री राम को तो कुछ ने खुब फुटकर कराया है। बात महल भक्ति तक सीमित हो तो भी अच्छा था। इनकी आड़ में अपनी पब्लीसिटी का जो जाल फैलाया है यह घातक है। देंवताओं की भक्ति भारत में आम बात है उसका श्रेय लेने के लिए मची होड़ से आपत्ति है।
ईश्वर अपने भक्तों को सदबुद्धी दो कि आपका नाम लें, और लोगों को प्रेरणां भी दें, लेकिन आपके नाम पर अपनी पहचान बनाने का पब्लीसिटी गेम कहां तक जायज है।
पहले तो देंवताओं और उनके भक्तों से लिखने की हिमाकत के लिए क्षमादेंवताओं का फ्लैक्सीकरण, हां सच है। सड़क चलते तमाम फ्लैक्स सांई बाबा, दुर्गामाता, शंकर भगवान, जब जिनकी डिमांड तब वैसी फोटो। उनकी ही फोटो होती तो बात न थी । साथ में फ्लैक्स बनवाने वाले की पुरी जन्म पत्री। बात श्री सांई बाबा के नाम पर प्रसाद बंटवाने तक होती तो पुण्य की बात थी। लेकिन पुरे आसपास के माहौल का जो फ्लैक्सीकरण किया जाता है शिकायत इससे है।
तशरीफ टिका ही लिजीए
तशरीफ टिका ही लिजीए, आईपीएल आ गया है। ऐसे आप दिनभर इतने बीजी रहते है। कि आपको तशरीफ टिकाने का मौका ही नहीं मिल पाता। लिजिए आपके सारे काम, घर की जिम्मेदारियां, आफिस के फाईल निपटाने,देश की जिम्मेदारियों को निपटाने का सारा जिम्मा आईपीएल ने लेलिया। इसलिए सारे काम छोड़कर आप आराम से बस के उपर, टायर में, कम्बोड पर, पेपर के बन्डल पर, वनस्पती के डिब्बे पर, साईकल के केरीयर पर कहीं भी अपनी तशरीफ टिकाकर मैच का मजा ले सकते हैं। और कुछ देखेंगे भी। बात मनोरंजन से भी आगे जा रही है। जब छोटे—छोटे बच्चों को पढ़ाई और खेलकूद से दूर कार्पोरेट मैच के इस घटिया फार्मेट के लिए उन्मादी और अति उत्साह में देखता हूं तो चिंता होती है। मैच किसका होगा, दो कार्पोरेट लाबियों का, लड़ेंगे कौन, दो राज्यों के नाम और उनकी अस्मिता। पहले पहल जब भारत पाकिस्तान के मैच होते थे, तब माहौल जीत या हार में हो हंगामा जैसा बिलकुल न था, लेकिन मीडिया के उकसावे और मैच को दुश्मनी की तरह देखने के नजरीये ने खेल को जंग का मैदान बना दिया। आलम यह है कि, अब मैच जितने पर जंग जितने की खुशी होने लगी है। ऐसा उन्माद यदि भारत के अलग अलग शहरों और राज्यों के बीच पनप गया तो, हालात कैसे होंगे यह सोंचना होगा। फिर आईपीएल ही हो रहा है ना, कोई समुद्र मंथन तो हो नहीं रहा, जहां से नौ रत्न या अमृत का घड़ा निकलने वाला हो। तो इस हर साल लगने वाले व्यापार मेले की तरह लगने वाले आईपीएल लिए ओवर एक्साईटेड होने की क्या जरूरत है। हमारे इस अतिउत्साह और घटीया कार्पोरेट मैच की आड़ में निलाम हो रहे खिलाड़ीयों को देखना हमें तो नहीं भाता। लोगों को इसका जबरीया फैन बनाकर फिर से सेंट, पीपरमेंट, साबुन तेल मसाला बेचने की तैयारी है। खेल देखना अब केवल मनोरंजन नहीं रहा शायद, क्रिकेट देखना मनोरंजन न रहकर कैसे बना आदत..पता ही नहीं चला ..खैर क्रिकेट प्रेमियों को हर चीज में छूट है ...
तशरीफ टिका ही लिजीए, आईपीएल आ गया है। ऐसे आप दिनभर इतने बीजी रहते है। कि आपको तशरीफ टिकाने का मौका ही नहीं मिल पाता। लिजिए आपके सारे काम, घर की जिम्मेदारियां, आफिस के फाईल निपटाने,देश की जिम्मेदारियों को निपटाने का सारा जिम्मा आईपीएल ने लेलिया। इसलिए सारे काम छोड़कर आप आराम से बस के उपर, टायर में, कम्बोड पर, पेपर के बन्डल पर, वनस्पती के डिब्बे पर, साईकल के केरीयर पर कहीं भी अपनी तशरीफ टिकाकर मैच का मजा ले सकते हैं। और कुछ देखेंगे भी। बात मनोरंजन से भी आगे जा रही है। जब छोटे—छोटे बच्चों को पढ़ाई और खेलकूद से दूर कार्पोरेट मैच के इस घटिया फार्मेट के लिए उन्मादी और अति उत्साह में देखता हूं तो चिंता होती है। मैच किसका होगा, दो कार्पोरेट लाबियों का, लड़ेंगे कौन, दो राज्यों के नाम और उनकी अस्मिता। पहले पहल जब भारत पाकिस्तान के मैच होते थे, तब माहौल जीत या हार में हो हंगामा जैसा बिलकुल न था, लेकिन मीडिया के उकसावे और मैच को दुश्मनी की तरह देखने के नजरीये ने खेल को जंग का मैदान बना दिया। आलम यह है कि, अब मैच जितने पर जंग जितने की खुशी होने लगी है। ऐसा उन्माद यदि भारत के अलग अलग शहरों और राज्यों के बीच पनप गया तो, हालात कैसे होंगे यह सोंचना होगा। फिर आईपीएल ही हो रहा है ना, कोई समुद्र मंथन तो हो नहीं रहा, जहां से नौ रत्न या अमृत का घड़ा निकलने वाला हो। तो इस हर साल लगने वाले व्यापार मेले की तरह लगने वाले आईपीएल लिए ओवर एक्साईटेड होने की क्या जरूरत है। हमारे इस अतिउत्साह और घटीया कार्पोरेट मैच की आड़ में निलाम हो रहे खिलाड़ीयों को देखना हमें तो नहीं भाता। लोगों को इसका जबरीया फैन बनाकर फिर से सेंट, पीपरमेंट, साबुन तेल मसाला बेचने की तैयारी है। खेल देखना अब केवल मनोरंजन नहीं रहा शायद, क्रिकेट देखना मनोरंजन न रहकर कैसे बना आदत..पता ही नहीं चला ..खैर क्रिकेट प्रेमियों को हर चीज में छूट है ...
Saturday, March 24, 2012
या तो सेट है या लड़ना छोड़ दिया है। यूथ कांग्रेस व एनएसयूआर्इ् नाम की
हां यही लगता है इनकी कार्यप्रणाली देखकर, की या तो सेट हैं या इन्हें आंदोलनों से अब भय लगने लगा है। क्योंकि जो कुछ छोटा मोटा हूजूम कभी दिखाई पड़ रहा है, वह प्री प्रोग्राम ड्रामा से इतर कुछ और नहीं है। हम बात कर रहे हैं छत्तीसगढ़ कांग्रेस के युवा नेतृत्व एनएसयूआई व युवा कांग्रेस की। कुछ बन्धुओं को इस बात से एतराज़ भी होगा कि, वे कुछ करें न करें, लिखने वाले को क्या मतलब। मतलब है, मुझे आपकी पार्टी से। राज्य की एक मात्र बहुमत की विपक्षी पार्टी है कांग्रेस । जनता ने वोट दिया है इसलिए मतलब है। आप किसी पार्टी से जुड़कर ही सही राज्य के युवा वर्ग का प्रतिनिधीत्व करते हैं इसलिए भी मतलब है।
राज्य में भाजपा का लगातार दूसरा कार्यकाल चल रहा है लेकिन आज भी चारो ओर भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, अन्याय, अत्याचार, डर भय आतंक, प्रशासनीक आतंकवाद जैसी तमाम बुराईयां चरम पर है। इनका समय समय पर कांग्रेस विधानसभा में और कभी कभार सड़कों पर विरोध जताती रही है। लेकिन कई ऐसे मुदृदे भी हैं जिन पर बड़े जन आंदोलन की जरुरत है लेकिन कांग्रेस खामोश है युवा वर्ग, छात्र वर्ग खामोश है। या उन्हें असल मुदृदों की जानकारी नहीं है। इन मुदृदों को सामने लाने के पीछे क्या मजबूरीयां हैं इसका जवाब या तो भगवान जानता है या ये खुद!
राज्य में सबसे बड़ा जिसे मैं मानता हूं वह मामला है सोनी सोढ़ी का जिन्हें उनके आदिवासीयों के हित में लड़ने की सजा जेल जाकर चुकानी पड़ रही है। आपके जैसे बड़े पार्टी के होते हुए उनकी आवाज जनता तक नहीं पंहुच पा रही है इसके लिए क्या आपको भी दोषी नहीं माना जा सकता। उस आदिवासी शिक्षक के साथ बलात्कार किया गया। उसके गुप्तअंगो पर पत्थर ठूंस दिए गए। रायपुर के अस्पताल में जांच होने पर रिपोर्ट में खा गया बलात्कार हुआ ही नहीं है । कोलकाता में जांच होने पर बलात्कार की पुष्टी होती है गुप्त अंगो से पत्थर निकलते हैं। यह सब देखकर भी आपकी पार्टी खामोश है। इसलिए कहना पड़ रहा है। सब सेट हैं।
दूसरा मामला मैं भाजपा के शासनकाल में ऐसे आदिवासीयों से भी मिला हूं जिनकी जमीन सरकार ने जबरिया छीन ली। बस्तर स्थित लौंहडीगुड़ा के किसानों के परिवारवालों को जेल में डाल दिया गया और कहा गया कि कागज में हस्ताक्षर करो तभी परीवार के लोगों को छोड़ा जाएगा। क्या इस पर युवा नेतृत्व की नजर नहीं पड़ी।
तीसरा मामला राज्य के अभनपुर इलाके के बीपीएल परीवार के आदिवासी किसानों के नाम पर रायगढ़ में करोड़ो रुपए की जमीन उद्योगपतियों ने खरीद ली सरकार इसकी जांच नहीं कर रही है। इस तरह कई इलाकों में आदिवासीयों की उद्योगों के लिए खरीदी बेची जा रही है। लेकिन आप इसे आंदोलन के जरिये लोगों तक पंहुचा पाते ऐसा माददा शायद अब इन इकाइयों में नहीं है|
चौथा मामला सरकार आदिवासी, सतनामी समाज पर जमकर राजनीति कर रही है। आंदोलनों का दमन किया जा रहा है। कांग्रेस चाहती तो बड़ा आंदोलन खड़ा कर मामले को जन—जन तक पंहुचाकर, सरकार के जातीवाद आधारित राजनीति का काला चेहरा सामने ला सकती थी। लेकिन मामला विधानसभा से विधायकों के बर्हिगमन तक सिमित रह गया।
पांचवा मामला राज्य में उद्योगों के लिए आदिवासीयों का आशियाना जलाने की घटना के जांच के लिए सीबीआई की टीम राज्य आती है और इसे छत्तीसगढ़ की वह एसपीओ जीसे रमन सिंह अच्छा बताते हैं यही एसपीओ हमला कर देती है। यदी सरकार इसी एसपीओ की प्रशंसा करे तो क्या यह नहीं कहा जा सकता की सरकार के इशारे पर सीबीआर्इ् पर हमला हुआ।
इसी तरह दर्जनो घटनाक्रम व मामले हैं जिन पर सरकार को घेरकर लोगों में भाजपा की साख गिराने का मौका मिल रहा था। लेकिन सब खामोश रहे। मामला कुल मिलाकर यह है कि जनता में अपनी गिरी हुई साख जिसके कारण 2003 और 2008 में मुंह की खानी पड़ी थी इसे सुधारने और जनाधार बढ़ाने का मौका कांग्रेस के हांथ आया और फिसल कर चला गया। कहां थे आई रे आई एनएसयुआई, कहां थे टाटा सफारी में बैठकर खुद को यूथ कांग्रेस के पदाधीकारी बनकर खुद को यूथ हिमायती बताने वाले। इस तरह देखा जाए तो पिछले कुछ सालों में गली मोहल्ले कालेजों में कांग्रेस के कार्यकर्ता जरूर बढ़े हैं लेकिन सरकार हिल जाए ऐसा कोई आंदोलन देखने को नहीं मिला है।
माजरा दरअसल यह है कि कांग्रेस में कहीं न कहीं ऐसे यूथ चेहरे की कमी दिखाई पड़ रही है। जो पार्टी से अलग अपनी अलग पहचान रखता हो जिसे लोग पार्टी के पद से बढ़कर उसके आंदोलनों के लिए जानें। छत्तीसगढ़ में सरकार की भूमिका पर तो मीडिया संस्थान अक्सर सवाल उठाते रहे हैं लेकिन विपक्ष की भूमिका पर कौन सवाल उठाएगा।
अब पुतला दहन और शव अर्थी से बात नहीं बनेगी
कुछ जनआंदोलन करना होगा
तानाशाह इस अधिनायकवाद पर
अब तो प्रहार करना होगा
:देवेश तिवारी
राज्य में भाजपा का लगातार दूसरा कार्यकाल चल रहा है लेकिन आज भी चारो ओर भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, अन्याय, अत्याचार, डर भय आतंक, प्रशासनीक आतंकवाद जैसी तमाम बुराईयां चरम पर है। इनका समय समय पर कांग्रेस विधानसभा में और कभी कभार सड़कों पर विरोध जताती रही है। लेकिन कई ऐसे मुदृदे भी हैं जिन पर बड़े जन आंदोलन की जरुरत है लेकिन कांग्रेस खामोश है युवा वर्ग, छात्र वर्ग खामोश है। या उन्हें असल मुदृदों की जानकारी नहीं है। इन मुदृदों को सामने लाने के पीछे क्या मजबूरीयां हैं इसका जवाब या तो भगवान जानता है या ये खुद!
राज्य में सबसे बड़ा जिसे मैं मानता हूं वह मामला है सोनी सोढ़ी का जिन्हें उनके आदिवासीयों के हित में लड़ने की सजा जेल जाकर चुकानी पड़ रही है। आपके जैसे बड़े पार्टी के होते हुए उनकी आवाज जनता तक नहीं पंहुच पा रही है इसके लिए क्या आपको भी दोषी नहीं माना जा सकता। उस आदिवासी शिक्षक के साथ बलात्कार किया गया। उसके गुप्तअंगो पर पत्थर ठूंस दिए गए। रायपुर के अस्पताल में जांच होने पर रिपोर्ट में खा गया बलात्कार हुआ ही नहीं है । कोलकाता में जांच होने पर बलात्कार की पुष्टी होती है गुप्त अंगो से पत्थर निकलते हैं। यह सब देखकर भी आपकी पार्टी खामोश है। इसलिए कहना पड़ रहा है। सब सेट हैं।
दूसरा मामला मैं भाजपा के शासनकाल में ऐसे आदिवासीयों से भी मिला हूं जिनकी जमीन सरकार ने जबरिया छीन ली। बस्तर स्थित लौंहडीगुड़ा के किसानों के परिवारवालों को जेल में डाल दिया गया और कहा गया कि कागज में हस्ताक्षर करो तभी परीवार के लोगों को छोड़ा जाएगा। क्या इस पर युवा नेतृत्व की नजर नहीं पड़ी।
तीसरा मामला राज्य के अभनपुर इलाके के बीपीएल परीवार के आदिवासी किसानों के नाम पर रायगढ़ में करोड़ो रुपए की जमीन उद्योगपतियों ने खरीद ली सरकार इसकी जांच नहीं कर रही है। इस तरह कई इलाकों में आदिवासीयों की उद्योगों के लिए खरीदी बेची जा रही है। लेकिन आप इसे आंदोलन के जरिये लोगों तक पंहुचा पाते ऐसा माददा शायद अब इन इकाइयों में नहीं है|
चौथा मामला सरकार आदिवासी, सतनामी समाज पर जमकर राजनीति कर रही है। आंदोलनों का दमन किया जा रहा है। कांग्रेस चाहती तो बड़ा आंदोलन खड़ा कर मामले को जन—जन तक पंहुचाकर, सरकार के जातीवाद आधारित राजनीति का काला चेहरा सामने ला सकती थी। लेकिन मामला विधानसभा से विधायकों के बर्हिगमन तक सिमित रह गया।
पांचवा मामला राज्य में उद्योगों के लिए आदिवासीयों का आशियाना जलाने की घटना के जांच के लिए सीबीआई की टीम राज्य आती है और इसे छत्तीसगढ़ की वह एसपीओ जीसे रमन सिंह अच्छा बताते हैं यही एसपीओ हमला कर देती है। यदी सरकार इसी एसपीओ की प्रशंसा करे तो क्या यह नहीं कहा जा सकता की सरकार के इशारे पर सीबीआर्इ् पर हमला हुआ।
इसी तरह दर्जनो घटनाक्रम व मामले हैं जिन पर सरकार को घेरकर लोगों में भाजपा की साख गिराने का मौका मिल रहा था। लेकिन सब खामोश रहे। मामला कुल मिलाकर यह है कि जनता में अपनी गिरी हुई साख जिसके कारण 2003 और 2008 में मुंह की खानी पड़ी थी इसे सुधारने और जनाधार बढ़ाने का मौका कांग्रेस के हांथ आया और फिसल कर चला गया। कहां थे आई रे आई एनएसयुआई, कहां थे टाटा सफारी में बैठकर खुद को यूथ कांग्रेस के पदाधीकारी बनकर खुद को यूथ हिमायती बताने वाले। इस तरह देखा जाए तो पिछले कुछ सालों में गली मोहल्ले कालेजों में कांग्रेस के कार्यकर्ता जरूर बढ़े हैं लेकिन सरकार हिल जाए ऐसा कोई आंदोलन देखने को नहीं मिला है।
माजरा दरअसल यह है कि कांग्रेस में कहीं न कहीं ऐसे यूथ चेहरे की कमी दिखाई पड़ रही है। जो पार्टी से अलग अपनी अलग पहचान रखता हो जिसे लोग पार्टी के पद से बढ़कर उसके आंदोलनों के लिए जानें। छत्तीसगढ़ में सरकार की भूमिका पर तो मीडिया संस्थान अक्सर सवाल उठाते रहे हैं लेकिन विपक्ष की भूमिका पर कौन सवाल उठाएगा।
अब पुतला दहन और शव अर्थी से बात नहीं बनेगी
कुछ जनआंदोलन करना होगा
तानाशाह इस अधिनायकवाद पर
अब तो प्रहार करना होगा
:देवेश तिवारी
Saturday, March 3, 2012
कोई जवाब तो दे
कैसे जीते बारुद के उपर संगीनों के साए में
कैसे जीते अभाव के मारे लाशों के साराय में
देखेंगे कैसे मरते हैं वहां चिंटी की तरह इंसान
कैसे बन जाते हैं अपने ही भाईबन्धु शैतान
जहां जवानी आने से पहले अंदर ही घबराती हैं
पानी लेने जहां मातांएं बहने कोसो दूर जाती हैं
कैसे जवान बंदूक थामे खुद घरबार छोड़े बैठे हैं
कैसे जनतंत्र की बांहें कुछ माओ मरोड़े बैठे हैं
अत्याचारी पुलिस प्रशासन, मौन हुए सब सिपेसलार
भोले आदिवासीयों के हत्यारे, कैसे बन बैठे थानेदार
चूहों की तरह बील में कैसे जनप्रतिनीधी घुस जाते हैं
पंचवर्षीय चुनाव मेले में,कैसे मांद छोड़ बाहर आते हैं
खूनी नदीयां,खूनी सड़कें, खूनी पुल,खूनी हाट बजार सारे
पल में जीते पल—पल मरते जंगल के असल मालिक बेचारे
सब कुछ देखकर मौन चिंदंबर,मौन है मोहन,मौन रमन है
लोकतंत्र के आभासी किताबों में खोजा हमने क्या ये अमन है
कोई बताए ये कत्लेआम लड़ाई किसने छेड़कर छोड़ दी
किसने की शुरूआत किसने निर्ममता की हदें तोड़ दी
कौन जलाता है घरबार, कौन शमा जलाने जाता है
कैसे मुखिया एकात्म की छत से हर शाम गुर्राता है
कोई जवाब तो दे, किसने बरसों तक, सौंतेला बनाया
कोई जवाब तो दे किसने, जन से तंत्र, काट गिराया
बच्चा बच्चा मेरे राज्य का यही सवाल पूछता है मुखिया
बताओ मेरे भाईयों को बेघर अनाथ किसने बनाया : देवेश तिवारी
कैसे जीते अभाव के मारे लाशों के साराय में
देखेंगे कैसे मरते हैं वहां चिंटी की तरह इंसान
कैसे बन जाते हैं अपने ही भाईबन्धु शैतान
जहां जवानी आने से पहले अंदर ही घबराती हैं
पानी लेने जहां मातांएं बहने कोसो दूर जाती हैं
कैसे जवान बंदूक थामे खुद घरबार छोड़े बैठे हैं
कैसे जनतंत्र की बांहें कुछ माओ मरोड़े बैठे हैं
अत्याचारी पुलिस प्रशासन, मौन हुए सब सिपेसलार
भोले आदिवासीयों के हत्यारे, कैसे बन बैठे थानेदार
चूहों की तरह बील में कैसे जनप्रतिनीधी घुस जाते हैं
पंचवर्षीय चुनाव मेले में,कैसे मांद छोड़ बाहर आते हैं
खूनी नदीयां,खूनी सड़कें, खूनी पुल,खूनी हाट बजार सारे
पल में जीते पल—पल मरते जंगल के असल मालिक बेचारे
सब कुछ देखकर मौन चिंदंबर,मौन है मोहन,मौन रमन है
लोकतंत्र के आभासी किताबों में खोजा हमने क्या ये अमन है
कोई बताए ये कत्लेआम लड़ाई किसने छेड़कर छोड़ दी
किसने की शुरूआत किसने निर्ममता की हदें तोड़ दी
कौन जलाता है घरबार, कौन शमा जलाने जाता है
कैसे मुखिया एकात्म की छत से हर शाम गुर्राता है
कोई जवाब तो दे, किसने बरसों तक, सौंतेला बनाया
कोई जवाब तो दे किसने, जन से तंत्र, काट गिराया
बच्चा बच्चा मेरे राज्य का यही सवाल पूछता है मुखिया
बताओ मेरे भाईयों को बेघर अनाथ किसने बनाया : देवेश तिवारी
Friday, March 2, 2012
लोकतंत्र के हत्यारों

अब लोकतंत्र की परिभांषांए तुम हमें बतलाओगे
सत्ता सौंपी थी तुमको हमने, रक्षा हमारी करने को
हमसे पहले अग्नी में सब होम हवन कर जलने को
बगावती भले हो जांए, नहीं सहेंगे अत्याचारों को
अब तो सबक सिखाना होगा लोकतंत्र के हत्यारों को
बेचा जंगल, बेची नदियां बाप की जागिर समझकर
सीना ताने चलते हो लैनीन की तुम शाल ओढ़कर
लो ताल ठोंकते हैं हम मुकाबला आकर हमसे लो
कुछ बूंद हमारे रक्त से भी कोठीयां अपनी भर लो
बंदूकें छीननी होगी अब निकम्मे पहरेदारों से
अब तो बदला लेंगे हम लोकतंत्र के हत्यारों से
बस्तर की घाटीयों में जब-जब कत्लेआम हुआ है
बारुदों के ढेर में अमन चैन सब निलाम हुआ है
खुद तो बैठे बूलेटप्रूफ में और हमारी चिंता छोड़ दी
हमारी रक्षा करने की तुमने सारी प्रतिज्ञाएं तोड़ दी
लोकतंत्र का चिरहरण अब नहीं सहाता यारों से
अब तो गद्दी छिननी होगी लोकतंत्र के हत्यारों से
जल, जंगल, आदिवासी राजनीति की बीसात बने हैं
इन्हें लूटने राजनीति में कई मोर्चे और जमात बने हैं
की होती गर चिंता हमारी, गोलाबारुद न बरसते होते
हम जंगल के रहवासी अपने घर को न तरसते होते
अब तो सारे पाखंड तुम्हारे, हमें समझ में आते हैं
लोकतंत्र के हत्यारों भागो अब, हम सामने आते हैं
छत्तीसगढ़ महतारी, जननी,का कर्ज चुकाने आए हैं
हमारे पुरखों ने खातिर इसकी हजारो जख्म खाए हैं
माना तुम सूरमा हो हम भी विरनारायण फौलाद हैं
रुधीरों में हम आग बहाएं हनुमानसिंह की औलाद हैं
अब तो माता की पीड़ा हम और नहीं सह पाएंगे
लोकतंत्र के हत्यारों को अब हम सबक सिखांएगे
सौंपी दी सत्ता हमने तो, मुंह बंद करा दोगे क्या
उठाया हक की खातिर सर, कलम करा देागे क्या
लो सीना ताने हम भी आज खुनी फरमाईश रखते हैं
तेरे महलों के सामने आज लाशों की नुमाईश करते हैं
हिम्मत है तो हमारी तरह आंसू खून के पीना सीखो
लोकतंत्र के हत्यारों अब, असल रुप में जीना सीखो
: देवेश तिवारी
Sunday, February 26, 2012
हम यूथ कहीं थ्यूए थू न हो जाएं !

खैर जो भी है, देश चल रहा है, पुरानी बुनीयादों से इंटे निकल रही है, लेकिन नए आधारों के दिमक से पुराने इंट ही अच्छे। व्यवस्था: देश की, राज्य की, समाज की, आसपास की, विश्व की, पर्यावरण की हर व्यवस्था, जिसके लिए यूथ की ओर हम ताकते हैं| सच्चाई यह है कि यह यूथ अब उल्टे रास्ते चल पड़ा है| इसमें कहीं न कहीं हम भी शामिल हैं, यूथ उलटकर थ्यू थू हो चला है। काम क्या है सुबह उठना, कालेज जाना कुछ लोगों से बतियाना इससे ज्यादा कुछ सोंचा तो कटरीना का चिकनी चमेली। किसी मुदृदे पर बात करनी हो, इनसे विदृवान कोई नहीं, सब जानते हैं, अखबार पढ़ते हैं, न्यूज देखते हैं पूरी खबर रखते हैं, लेकिन करना कुछ नहीं, ब्लैकबेरी का नया मॉडल शायद ज्यादा जरुरी है। राजनीति में आकर व्यवस्था सुधरेगी, आईकन कौन? राहुल गांधी इसके लिए भी जागिर में कुर्सी चाहिए, ऐसी किस्मत राहुल की ही हो सकती है, आपकी नहीं। ये उम्मीद भी खत्म। इंजीनीयर बनना है, डाक्टर बनना है, वो सबकुछ बनना है, जिससे तगड़ा अर्थोपार्जन हो सके| नहीं बनना है तो देश सेवक| सही भी है माता—पिता ने जो सिखाया वह ज्यादा जरुरी है। पढ़ाया लिखाया है अच्छा इंसान बनने को नहीं कहा, कभी देशसेवा करने को नहीं कहा कभी, फिर उनके खिलाफ कैसे जा सकते हैं।
दूसरा पहलू पढ़ाई से उपर कुछ करना है तो गार्डन में चोंच कैसे लड़ांए, केएफसी किसके लिए खुला है, इनके उपभोक्ता भी तो हमें ही बनना है। बाजार में डर्टी पिक्चर आई तो धमाल सुपरहिट, सोशल वैल्यू पर फिल्म आई जाने वाले को भी रोक दिया, सोने जाएगा क्या।
अपने देश की व्यवस्था कैसे सुधरेगी किसी को कोई मतलब नहीं वरन अमेरिका की सड़कों पर पीएचडी है इन्हें। इनसे है हमें क्रांती की उम्मीद।
मेरी मां, मेरा बापू, मेरा डोकरा ऐसे संबोधन में उलझी पिढ़ी, खुद को यदि आने वाले समय का आर्दश बताए चिंता होनी भी चाहिए।
आज अगर माता पिता देश की वर्तमान दशा और लूट तंत्र को लेकर चिंता करते हैं तो उन पर जैसी करनी वैसी भरनी वाली कहावत चरिर्ताथ होती है। आपने अपने बच्चों को हर खुशी देने के लिए कौन से रास्ते अपनाए इसका जवाब खुद से मांगे, आईना टूट जाएगा। इसके बाद यदि युवा केवल और केवल अपने बारे में सोचतें हैं तो हाय तौबा मचाने की जरुरत नहीं है।
आडी, वाशवैग्न, फरारी की चमक इन्हें अधिक नजर आती है बजाय अपने शहर के सड़कों को झांकने के। मुदृदे कई हैं, जिनमें इनकी सोंच चाहिए, व्यवस्था में परिवर्तन इनके बिना नहीं हो सकता। देश की दशा इनकी बैशाखी के बिना जमीन पर धाराशायी नजर आती है। लेकिन इन्हें गार्डन, पब से बाहर कौन निकालेगा। ज्यादा सोंचने की जरूरत नहीं पेशानी पर बल साफ दिखता है। जब पड़ोसी के घर में बाढ़ का पानी घुसता है तो घबराहट नहीं होती बल्कि मौज सूझता है,लेकिन अपनी चौखट गीली होने पर बिस्तर छज्जों में नजर आते हैं। समय आएगा देर से ही सही। हम भी राह ताकते हैं आप भी राह ताकिए। फिलहाल दूसरों के घरों को छोड़कर अपने घर में झांकिए।
: देवेश तिवारी
Friday, February 17, 2012
राजिम कुंभ: संत समागम या पीआरओ सम्मलेन



बाबाओं ने तोड़ा हठयोग
राजिम कुंभ 2011 में नागा साधुओं के दो मठों के बाबा आपस में वर्चस्व को लेकर खुनी लड़ाई पर उतारू हो गए थे। बाद में सरकार और पुलिस के बीच बचाव के बाद मामला शांत हुआ। इस साल नागा साधु मेले में सही जगह नहीं मिलने के कारण सरकार से नाराज होकर वापस लौट रहे थे| बाद में मंत्री जी ने हांथपांव जोड़कर इन्हें वापस बुलाया, और बुलाते भी क्यों नहीं, इनसे ही मेले कुंभ का आर्कषण है। बाबा इनके चलते फिरते पीआरओ जो ठहरे। इन बाबाओं के कैम्प के ठीक सामने लगे मंत्री जी के बड़े—बड़े पोस्टर कौन देखता, अगर ये चले जाते। दुख: की बात यह है कि साधुओं को जगह नहीं मिलने के कारण साधु वापस लौट रहे थे तब इनके हठ को देखकर लगा था वापिस किसी हल में नहीं आएंगे| सुना था] योगी हठ, बाल हठ और स्त्री हठ खतरनाक होता है, मनाए नहीं मानते, ये सब। लेकिन बाबाओं ने रुठने के बाद भी म़ंत्री जी के कहने पर जो हठ तोड़ा वह साधुओं और हठयोगियों के सम्मान के तप को तारतार कर देने वाला था। मंच पर बैठै सभी साधुओं ने जितने शब्द धर्म और आध्यात्म पर खर्च नहीं किए उतने शब्द मंत्री जी के यशगान व जनसंपर्क बनाने में खर्च कर दिए। बताइए इसके बाद भी उनके प्रति आपके मन में सम्मान कहां से आएगा। मैनें उन्हें प्रणाम किया और चुपचाप बेरीकेट पार कर बाहर निकल आया। मेले में कॉफी कुछ था देखने को लेकिन मुझे वह देखना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा जो सरकार जबरिया दिखाना चाहती थी| वह तो बिलकुल भी नहीं जिन्हें राज्य सरकार की झूठी प्रसिद्धयों को दिखाने के लिए जाल की तरह बुना गया था। मेले में कॉफि समय घूमता रहा आसपास का माहैाल देखा और वापस लौट आया
जो मेरे मन ने कहा, वो यह कि, अब साधु भी देश दुनिया में देवताओं का नहीं, ख्याती के लिए नेताओं का यशगान करते हैं।अब साधुओं की पीठ पर भी फूल व पंजा के निशान देखने को मिलने लगे हैं।

Thursday, February 16, 2012
फोटो क्यों खींचते हो
Wednesday, February 15, 2012
अब परवाह नहीं करता
मुझे आंसुओं के सैलाब में, बहना नहीं आया
कुछ बातें ऐसी भी थीं मुझे कहना नहीं आया
जो दावा करते थे मुझे समझने का तो इशारे की काफी थे
क्यों लगाते हो इल्जाम मुझपर रूठ जाने का
तब भी दाग थे शायद तुम्हारी नियत में
वरना अफ़सोस तो जताते साथ छूट जाने का
जिंदगी चार दिन की है आखिर में मुलाकात होगी
फिर तपती दोपहरी या अमावस की रात होगी
मैं तो अंधेरे में भी तुम्हारी आहट पहचान लूँगा
तुम पहचान लेना मुझे तब कोई बात होगी
एक दरिया खून का मेरी प्यास बुझाता रहा
मैं अपने ही लाल रंग से धार बनाता रहा
झेला है इतना दर्द की अब आह नहीं करता
किसी के आने-जाने की अब परवाह नहीं करता : देवेश तिवारी
कुछ बातें ऐसी भी थीं मुझे कहना नहीं आया
जो दावा करते थे मुझे समझने का तो इशारे की काफी थे
क्यों लगाते हो इल्जाम मुझपर रूठ जाने का
तब भी दाग थे शायद तुम्हारी नियत में
वरना अफ़सोस तो जताते साथ छूट जाने का
जिंदगी चार दिन की है आखिर में मुलाकात होगी
फिर तपती दोपहरी या अमावस की रात होगी
मैं तो अंधेरे में भी तुम्हारी आहट पहचान लूँगा
तुम पहचान लेना मुझे तब कोई बात होगी
एक दरिया खून का मेरी प्यास बुझाता रहा
मैं अपने ही लाल रंग से धार बनाता रहा
झेला है इतना दर्द की अब आह नहीं करता
किसी के आने-जाने की अब परवाह नहीं करता : देवेश तिवारी
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं
क्यों इल्जाम लगाम लगाऊं तुमपर, क्या तुमने अपराध किया है
बस अपनी खुशियों की खातिर, गैर का दामन थाम लिया है
फिर मुझपर क्यों ठहरी नजरें, इसका कोई जवाब तो दे
तुझे भूलाकर नशा करा दे , ऐसी कोई शराब तो दे
तू ही कतल आ कर दे मेरा, यही तमन्ना रखता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं
इन पलकों पर तेरे आंसू, क्यों रहते हैं ये तो बता
तेरी यादों के बादल यूँ , क्यों मंडराएं ये तो बता
तू खुश है तो मै भी खुश हूं , चाहे ये हो कोई सजा
फिर चाहे मुझे मौत मिले, तेरी खुशी और तेरी रजा
तू ही आकर जहर पिला दे, आखरी ख्वाहिश रखता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं
डोली वाली सुन तो जरा, मुझ पर तू विश्वास तो रख
जाना है तो शौख से जा, मेरा कलेजा साथ तो रख
तेरी यूं उखड़ी सी अदांए , मैं तो सह ना पाऊंगा
तेरे गली के नीम तले, मैं तड़प-तड़प मर जाऊंगा
तेरी खुशीयों पर आंच न आए, यही गुजारिश करता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं
तेरी गली के गुलमोहर में , फिर से बहारें आई हैं
मेरे बगिचे की कलियाँ क्यों, आज भी यूँ अलसायी हैं
तेरी अदांओ को कातिल मैं , कैसे बिसराऊं ये तो बता
अपने ही खंजर को सीने में, कैसे बुझांऊं ये तो बता
तुझको खुशियों का बाग मिले, मैं यही तमन्ना रखता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं :देवेश तिवारी
बस अपनी खुशियों की खातिर, गैर का दामन थाम लिया है
फिर मुझपर क्यों ठहरी नजरें, इसका कोई जवाब तो दे
तुझे भूलाकर नशा करा दे , ऐसी कोई शराब तो दे
तू ही कतल आ कर दे मेरा, यही तमन्ना रखता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं
इन पलकों पर तेरे आंसू, क्यों रहते हैं ये तो बता
तेरी यादों के बादल यूँ , क्यों मंडराएं ये तो बता
तू खुश है तो मै भी खुश हूं , चाहे ये हो कोई सजा
फिर चाहे मुझे मौत मिले, तेरी खुशी और तेरी रजा
तू ही आकर जहर पिला दे, आखरी ख्वाहिश रखता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं
डोली वाली सुन तो जरा, मुझ पर तू विश्वास तो रख
जाना है तो शौख से जा, मेरा कलेजा साथ तो रख
तेरी यूं उखड़ी सी अदांए , मैं तो सह ना पाऊंगा
तेरे गली के नीम तले, मैं तड़प-तड़प मर जाऊंगा
तेरी खुशीयों पर आंच न आए, यही गुजारिश करता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं
तेरी गली के गुलमोहर में , फिर से बहारें आई हैं
मेरे बगिचे की कलियाँ क्यों, आज भी यूँ अलसायी हैं
तेरी अदांओ को कातिल मैं , कैसे बिसराऊं ये तो बता
अपने ही खंजर को सीने में, कैसे बुझांऊं ये तो बता
तुझको खुशियों का बाग मिले, मैं यही तमन्ना रखता हूं
मेरी बिछड़ी जाना तुमसे, बहोत मोहब्बत करता हूं :देवेश तिवारी
Saturday, January 28, 2012
मुश्किल लेकिन संभव उम्मीद
क्या कारण है,कि राज्य में हमेशा भाजपा या कांग्रेस की सरकार बनती है। क्या कारण है कि सत्ताधारी लगातार निरंकुश हो रहे हैं। सरकार आदिवासी इलाके में लोगों के साथ ज्यादती कर रही है। लेकिन कोई बोलने वाला भी नहीं है। राज्य सरकार के विरोध में कांग्रेसी हैं मगर उनकी भी सत्ता आ गई, तो कौन सा बदलाव देखने को मिलना है, भाजपा है जहां बनिया राज, कहने का मतलब धनाड्य लोगों का, व्यापारी वर्ग का शासन चलता है नितियां उन्हीं के लिए बनाई जाती हैं और कांग्रेस की क्या कहें एक गेम खेलते हैं अपने इलाके के किसी भी असामाजिक आदमी का नाम सोंचिए जो चोरी, जुआ, मर्डर, हाफ मर्डर जैसे केस में जेल की हवा खा चुका हो। अब बताइए की वह कौन सी पार्टी में है। सभी कांग्रेस में ही मिलेंगे| बिहार, झारखण्ड, बंगाल,उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों के पास विकल्प भी हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में कोई विकल्प नहीं है। बरसों से चली आ रही वामपंथ की सरकार को ममता बनर्जी ने परेड मैदान में घंटी बांधकर उखाड़ फेंका लेकिन रायपुर के सप्रे शाला मैदान में कौन घंटी बांधेगा, विकल्प नहीं होने के कारण कांग्रेस या भाजपा जैसी किसी राष्ट्रीय पार्टी को मतदान करने के अलावा कोई चारा नहीं है, छत्तीसगढ़ के सामने।

Sunday, January 22, 2012
बाज़ार है, सबकुछ बिकाऊ नहीं : देवेश तिवारी

केवल लहरों को देखकर न करना, समुंदर की गहराई का फैसला
जहाँ तक नजर जाती है, सूरमाओं कि परछाई भर है
जब ये पन्ने उलटते हैं, तो ज्वारभाटे की लहर आती है
कभी कलम कि निब गड़ा दें, तो ज़लज़ला और सुनामी से कोहराम मच जाये
ये जिंदा हैं तब तक लोकतंत्र जिंदा है
वरना हर रोज ताबूत बनाने संसद में प्रस्ताव आते हैं
Sunday, January 15, 2012
कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ- देवेश तिवारी
बर्बर बरसती लाठियाँ, मेहनतकश मजलूमों पर
खून की नदियाँ बहती है, पतितपावन धरती पर
आवाम भी आज मौन है, कैसे इस खुनी मंज़र में
शोषित खुद ही चले चुभोने, अपनी छाती खंजर में
कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ
हर रोज कितनों की अस्मत, यूँ ही लूट ली जाती है
हर दिन फर्जी मुटभेड़ों की, गाथाएँ सुनाई जाती है
पाखंडी, श्वेत वस्त्र लादकर, गाँधीवादी कहलाता है
कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ
बंदूकों की नोक पर आज, गाँव जला दिए जाते हैं
बारूदों पर उलटे लेटे आदिवासी, माओ कहलाते हैं
जंगल खेत उजड़ने को है, उद्यमियों की चौपाल लगी है
और अन्नपूर्णा के भक्तों को, अब नोटों की प्यास लगी है
कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ
लोकतंत्र घुट-घुट मरता है, चंद तानाशाह के शिकंजो में
अब क्यों धार भुथियाने लगी, भारतीय सिंहों के पंजों में
अब राह दिखाने हमको न फिर, आजाद व गाँधी आयेंगे
लोभी जिंदगी में विलासी बनकर , हम यूँ ही मर जायेंगे
कहिये मैं खामोश कैसे रहूँ
Sunday, January 1, 2012
पिताजी मेरी अनकही आवाज....: देवेश तिवारी
पिता जी मै आभारी हूँ आपका, आपके कारण मुझे जीवन मिला
मेरी हर चीज पर आपका अधीकार है
आपका हर आदेश मुझे हंसकर स्वीकार है
आपने मुझे पढाया अब तक, मुझे नई दिशा दिखाई
मेरे कारण आपने अपने, शौक से भी कर ली लड़ाई
आगे कुछ और दिन भी, आप मेरा साथ दे दीजिए
थोड़ा अपने ख्वाबो से, आप भी समझौता कीजिये
पिता जी आपकी परवरिश का मै, पूरा कर्ज चुकाऊंगा
आप न भी कहें तो ताउम्र आपके, हर रात पांव दबाऊंगा
मै अपनी रूचि से कुछ करना चाहता हूँ, वो मुझे करने दीजिए
बगावती स्वर नहीं बोलूँगा, सोंचने भर के लिए क्षमा कीजिये
आप कहें तो मैं आपके, पुरे सपने साकार कर दूँगा
सारे जंहा की खुशियों से, झोली आपकी भर दूँगा
मगर आपकी सोंच ,इस तरह मुझ पर मत थोपीये
कुछ अलग करना चाहता हूँ मैं ,बेटा बनकर जरा सोंचिये
मै कलाकार बनूँगा या फौजी, चित्रकार पत्रकार या, कुछ और भी
मुझे डाक्टर इंजीनियर मत बनाइये, दुनीया में है, काम और भी
करूँगा खेती अनाज उगाउँगा, भूखे पेटों की प्यास बूझाऊंगा
डाक्टर इंजीनियर अधिकारी ना सही, उन्नत किसान तो बनकर दिखाऊँगा
देश की रक्षा करनी है मुझको, मुझे सीमा पर लहू बहाना है
माँ के दूध से भी बढ़कर, माटी का कर्ज चुकाना है
पत्रकार बनकर लोगों की खातिर, लोगों से मुझको लड़ना है
समाज सेवा करते करते ,मुझको भी आगे बढ़ना है
क्या हुआ पिता जी जो, पड़ोसी जिलाधीश बन गया
चाचा की बेटी डाक्टर, और भाई इंजिनियर बन गया
मै भी कुछ करके आपका, सर फक्र से उठाऊँगा
कुछ नहीं बन पाया फिर भी, अच्छा इंसान बनकर दिखाऊंगा
आपके दबाव पर मै, यह अरुचिकर पढ़ाई करता हूँ
दिन रात किताबें चाटकर भी मैं, दूसरे पायदान पर रहता हूँ
मुझे रूचि नहीं इस पढ़ाई में मै, भीतर ही भीतर रोता हूँ
आपका मनीमशीन बनने की खातिर, इस पढ़ाई को ढोता हूँ
सोंचता हूँ एसी मंजिल से ,राह भटक जाना ही अच्छा
जिल्लत उबाऊ इस जिंदगी से, मेरा मर जाना ही अच्छा
रुक जाता हूँ यही सोंचकर, कभी तो ये हालात बदलेंगे
मेरी जुबान पर दबी आवाज को, इशारों से ही आप समझेंगे
पिताजी आपका बेटा हूँ, आपके खिलाफ नहीं जाऊंगा
घर बाहर के किसी कोने में, रो रो कर रह जाऊँगा
स्मृतियों की धुंधलाती यादें
स्मृतियों की धुंधलाती यादें निकलकर सामने छा जाने को है
और आज की अनचाही खुशियाँ पुरानी यादों में धुंधलाने को है
कुछ बातें कहना सुनना उसकी ही यादों में खोकर जीना बड़ी चाहत है
अकुलित होकर डबडब आँखों से खुशियाँ छलकाना भी बड़ी आफत है
तब हमारे जीवन में भी आंशिक उनका साया था
क्या कुसूर था पूछा नहीं हिम्मत जवाब दे जाती थी
वो ही अक्सर उलझन लेकर सामने चली आती थी
क्या पता कभी सामना होगा अब भी कुछ बातें बाकि है
संक्षिप्त जीवन की बारहमासी दास्ताँ सुनाना बाकि है
वो पल भी कहने हैं जो अक्सर चिरागों से मैं कहता था
उस कहानी को सुनकर वह भी हंसहंस रोकर जलता था
क्या कुछ नहीं धरती पर फिर भी ख़ामोशी गहराती है
क्या बताएं फेसबुकिया मित्रों हमें किसकी याद जलाती है
एक पल को भी दीदार हो जाये तो चाँद देर से निकलता है
अगर कुछ बातें हो जाये तो भोर का सूरज अंदर छिपता है
अब तो यही काली रातें हमेशा साथ निभाएंगी
वो तो पूनम की चाँद हैं बस आएँगी चली जाएँगीक्या कहें उलझन की बदरी इस कदर छाई है
पुरनम आँखों में दूर तलक पसरी तन्हाई है
कोई चरागां इस बुझे दिल में जले तो जले कैसे
खुशियाँ आक्रांताओं के आंगन में पले तो पले कैसे
जाने कितनी खुशियाँ आकर दहलीज पर लौट जाती है
खुशनसीब वो हैं जिन्हें यार की बस्ती में मौत आती है
हम तो आज भी किनारे पर ज़लज़ला थमने के इंतजार में हैं
नहीं पार होती उन्मादी दरिया वह भी समंदर के प्यार में हैं
बेगैरत जुबां पर आहट न पाकर, ये गैरतमंद जिंदगी मरी जा रही है
बिना मूरत के देवालय में भला पुजारी क्या करेगा
तस्वीरों में खोया पगला देवेश तिवारी क्या करेगा
एक चुस्की चाय की
कभी न मांगना किसी से, पैसा चाय पानी का
सुखद अन्त नहीं होगा, कभी भी इस कहानी का
बच्चों कि मिठाई, और पकवान रिश्वतदानों के
घोंट देते गला हमेशा, ईमानीयत अरमानों के
एक चम्मच पकवान के, सौ बद्दुआ इंसान के
एक चुस्की चाय की , गरीबों के हाय की : देवेश तिवारी
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