Wednesday, November 16, 2011

क्या करता साहब पैसे नहीं थे..एक गरीब कुम्हार के बेबसी की सच्चाई......

क्या करता साहब पैसे नहीं थे..... 


कुम्हार की कला अपमानित हुई राज्योत्सव रायपुर में आकर 

इस दुनिया में कला की कोई कद्र नहीं है, यह बात राज्योत्सव 2011 में इस तस्वीर ने चरितार्थ कर दी इस तस्वीर में जो आदमी लोगों को पानी पिला रहा है इसका नाम रामलखन प्रजापति है यह सरगुजा जिले के भैयाथान तहसील का रहने वाला है यह राज्योत्सव में सुराही लेकर प्रदर्शनी दिखाने आया था, अब आप सोंचेंगे की इसमें कौन सी नयी बात है नयी बात है ना कि इसकी सुराही आम सुराही से अलग है इसकी सुराही में पानी उपर से नहीं बल्कि नीचे से डाला जाता है जैसा की चित्र 2 में दिखाई पड़ रहा है। और पानी साईड में बने टोटी से निकाला जाता है, खास बात यह है कि टोटी से पानी अंदर नहीं जाता। इसे नहीं पता की इसकी सुराही किस विज्ञान से काम करती है मेरे ज्ञान से इसमें पास्कल का पानी का दबाव नियम काम करता है इसलिए पानी नीचे नहीं बहता। सबसे खास बात की इस सुराही में पानी आम मटके से 3 गुना अधिक ठंडा होता है 


समस्याएं हजार है 


यह सुराही के लिए मिटटी लेने 6 किलोमिटर दूर पैदल जाता है और जलाउ लकड़ी खरीद कर लाता है। घर में 11 लोग हैं। सभी मिलकर सुराही बनाते हैं एक दिन में 6 सुराही बनाते हैं। पकाने के लिए जलाउ लकड़ी खरीदकर लानी पड़ती है पैसा नहीं था साहब इसने सुराही की कीमत मात्र 100 रू रखी थी मगर लोग इसकी खुबियां देखकर इसे 200 रू में खरीदने को तैयार थे। मैने भी इच्छा जाहिर की मगर इसने कहा कि मेरे पास दो ही हैं इस समय मेरे पास ढ़ेर सारी सुराही लाने के लिए पैसे नहीं थे। मैं इसे बेच नहीं सकता मगर लोगों को पानी पीला सकता हूं लिहाजा आप मुझे माफ करें। इसकी सुराही सभी को पसंद आयी मगर यह क्या करता बेच देता तो लोगो को दिखता क्या | इसने तो प्रदर्शनी में आने के लिए भी पडोसी से उधार पैसे लिए थे |  


किसी ने नहीं की मदद 


विश्वसनीय छत्तीसगढ़ राज्योत्सव 2011 में तमाम सरकारी मदद करने वाली संस्थांए थी जो गरीबों के लिए काम करने नाम लेती हैं और सरकार से बड़ी रखम अनुदान ले लेती हैं, मगर किसी की नजर इस गरीब कलाकार पर नहीं गयी न ही किसी पत्रकार ने इसकी आवाज को अखबार में जगह दीं मैने कोशिश की मगर मेरे अखबार में मैं जिस पन्ने पर काम करता हूं उसमें इस तरह की स्टोरी के लिए जगह नहीं थी क्या करता फेसबुक और अपने ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं। 


अगर कोई भी सज्जन इस गरीब के माल को शहर के बाजार में जगह दिलाना चाहे तो मेरे नंबर 09827988889 पर संपर्क कर सकता है। सज्जन को मुनाफा मिल जाएगा और गरीब के पेट में दो रोटियां आ जाएँगी ...                       

Monday, April 4, 2011

किस पर विश्वास करूँ बहरुपी सारा जमाना लगता है : देवेश तिवारी


हर आशियाने को घरबार समझ लेता हूँ 
दिल के काले को भी मै दिलदार समझ लेता हूँ
गहरी गहरी खाई को मीनार समझ लेता हूँ
आगे बढ़ने की सीढ़ी को दीवार समझ लेता हूँ
             हर गली मोहल्ला अब विराना लगता है
            किस पर विशवास करूँ बहरुपि सारा जमाना लगता है
चिकनी चुपड़ी बातें अब मुझको नहीं भाती है 
इन मेढ़ों की टेढ़ी चाल मुझे नहीं आती है  
राह दिखने वाला खुद तो बुझे दिए का बाती है
समझ नहीं आता यहाँ कौन मेरा साथी है
            अपनों से भरा शहर भी अब विराना लगता है
            किस पर विश्वास करूँ बहरुपि सारा जमाना लगता है
क्या अँधेरी गलियों में मै यहीं कहीं खो जाऊँ
या किसी पाखंडी के डर पर मै नतमस्तक हो जाऊँ
थकावट सा लगता है क्या मै यहीं कहीं रुक जाऊँ
या आडम्बर देवों के दर पर मै झुक जाऊँ
            लेकिन पाप करने सा मुझको झुक जाना लगता है
            किस पर विश्वास करूँ बहरुपि सारा जमाना लगता है
अच्छे बुरे में मै अब भेद नहीं कार सकता हूँ
इस चक्रव्यूह में अब मै छेद नहीं कार सकता हूँ
मै किसकी खोज करूं यहाँ हर हाथ में चाकू है
मुखौटा पहने दुनिया में हर कोई डाकू है
            अब मुश्किल बहुत ही मंजिल को पाना लगता है
            किस पर विश्वास करूँ बहरुपि सारा जमाना लगता है
इस गुलशन में लुटा हर फुल बयाँ करता है
जल्दी खिलने वाला फुल गुलशन में नहीं रहता है
यहाँ तो सुन्दर फूलों के पौधे उखाड़ लिए जाते हैं
फुल पत्तों की क्या बिसात यहाँ बाग उजाड़ लिए जाते हैं
            मुझे दिलासा देने वाला हस शब्द फ़साना लगता है
            किस पर विश्वास करूँ बहरुपि सारा जमाना लगता है
पथ्भ्रस्ट हो चूका हूँ मै किस राह चला जाता हूँ
कदम कहीं भी जाते हैं मै रोक नहीं पता हूँ
क्या भूल भुलैया दुनिया में मै मार्ग नया बनाऊंगा
या मै भी इन गलियों में गुमनाम कहीं हो जाऊंगा
            अपने घर का रास्ता भी अनजाना लगता है
किस पर विश्वास करूँ बहरुपी सारा जमाना लगता है  

क्रिकेट - यह कैसा उन्माद : देवेश तिवारी ...



भारत ने पुरे विश्व की टीमों को हराकर फाइनल जीता यह निश्चित ही कबीले तारीफ है मैंने भी इस जीता  का खूब लुत्फ उठाया .. मगर कहीं न कहीं ऐसा लगता है की इस तरह की जीत से तो हारना अच्छा था ! .. मै देश के अरबों खेलप्रेमियों,  माफ कीजियेगा क्रिकेट प्रेमियों से माफी चाहुंगा  अगर उन्हें मेरी बात का बुरा लगा हो । बात ही कुछ चींता जनक है । 
          पहले तो भारत और पाकिस्तान के बीच हुए मैच की बात करना चाहूँगा । मैच के पहले ही हमने मैच को इस तरह से पेश  किया जैसे वह मैच ना हो बल्कि कारगिल की लड़ाई हो । एक समाचार पत्र ने तो बीच में वर्ल्डकप रखकर आजु बाजु दोनों देशों के कप्तानों को बन्दुक लेकर खड़ा कर दिया । मैच के पहले तक लोगों में मैच को लेकर इस तरह का माहौल बनाया गया  जैसे इस मैच को नहीं जितने पर भारतीयों पर कहर गीर पड़ेगा । जैसे तैसे भारत मैच जीत भी गया यह खुशी  की बात है मगर खुशी  जाहिर करने का तरिका बदला हुआ था ना जाने क्यों भारत में आजकल पेट्रोल जलाकर खुशी  मनाने का नया ट्रेंड आया हुआ है । क्या अस्पताल क्या वृद्धाश्रम सड़क पर युवाओं की टोलीयां लगातार हार्न बजाते नीकल पडी।  सभी पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे कुछ तो मुंह से जाति विशेष के लिए अपशब्द के गुब्बारे छोड़ रहे थे । इतने में भी मन नहीं भरा तो बाईक से टकराकर लड़ाईयां भी करने लगे । क्या यह  हमारे खुशी जताने का तरिका है।
             भारत और श्री लंका के मैच को तो राम और रावण के युद्ध की तरह दिखाया गया । कई समाचार चैनलों ने धोनी को राम तथा श्रीलंकायी टीम के खीलाडि़यों को रावण के दस सिरों की तरह दिखाया । मोबाईल के मैसेज की अगर बात करें तो दिन भर वल्र्ड कप को सीता माता के अपहरण और उसे वापस लाने के संबंध में मैसेज आते रहे । क्या सही मायने में श्री लंकाई खिलाड़ी रावण की तरह दिखते हैं या उनके कर्म राक्षसी हैं । यदि ऐसा नहीं है तो खिलाड़ीयों को  क्यों भगवान , राक्षस की तरह दिखाया गया । इस मैच को भी भारत ने जीत लिया । खेल का उद्देश्य हमेंशा दो देशों के बीच आपसी तालमेल केस बढ़ना होता है न कि साम्रप्रदायिक तौर पर खेल को पेश कर आपसी सदभाव को ठेस पंहुचाना । भारत की जीत पर उन्माद का होना आम बात है मगर अति उन्माद ऐसा भी क्या जो अपने ही देष के लोगों को खराब लगे । उन्माद के पीछे का कारण यह हो सकता है की चैनलों ने मैच को जीने मरने का, प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया था।  मगर कभी हमने सोंचा की वे ऐसा सा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्माद जितना अधिक होगा लोगों का उससे सीधा जुड़ाव होगा और बाद में लोगों के इसी लगाव और उन्माद को साबुन और तेल में रैपर बनाकर बेचा जाऐगा और जो खिलाड़ी इस मैच के हीरो बने हैं वे भी विज्ञापनों के माध्यम से मोटी रकम कमानें में कामयाब हो सकेंगे ।
              इन मैचों पर सीयासत भी जमकर देखने को मिली जहां एक तरफ पूरे देश  में काला धन वापस लाओ , भ्रष्टाचार मिटाओ देश बचाओ की लहर चल रही थी वहीं घोटालों के आरोप से घिरी मनमोहन की सरकार ने मैदान में पंहुच कर निकम्मी सरकार के नजरीये को बदलकर कम आन इंडिया बना दिया । जिस देश में भ्रष्टाचार ,भुखमरी , स्वास्थ सुविधाओं में कमी , कुपोषण, बेरोजगारी  , काला धन वापस लाओ जैसे मुद्दे प्रमुखता से छाये हो ऐसे  देश  का प्रधानमंत्री अपनी मजबुरी का बहाना बनाकर बेशर्मी से हंसता है । और  क्रिकेट के मैदान में पंहुचकर देश  का ध्यान बंटाने की कोशीश करता है और हम खुशी खुशी  उन्हें माफ कर देते हैं । क्रिकेट मैच जितते ही हमारे अंदर राष्ट्रभक्ति की भावना जाग जाती है बाकि पूरे साल हम इसी देश के विकास का पैसा लूटते रहते हैं ।
              क्रिकेट को समाचारपत्रों ने इतनी तवज्जो दी की बाकि खबरें धरी की धरी रह गयी या नियत स्थान नहीं बना सकी । जापान में रेडियो एक्टिव जल समुद्र में घुलने लगा मगर इतनी बड़ी खबर को तीसरे पृष्ठ पर स्थान दिया गया | यह क्रिकेट का उन्माद नहीं तो और क्या है, हे राम अगर आपने ही वर्ल्डकप जिताया है तो आप ही हमारे लोगों को सदबुद्धि दें ...।

Sunday, March 13, 2011

विप्लव ने हमें बुलाया है - देवेश तिवारी

यह वक़्त सहसा लेकर आज संताप का रेला आया है
विलाप का यह वक़्त नहीं है घोर अंघेरा छाया है

चाहे है बंदिशियाँ लाखों जुबानों पर सही
लेकिन उन्माद कि कसौटी का आखिरी यह पल नहीं

वीरानियों में भले ही सज न पाए आज महफ़िल
मुफलिसी के गोद बैठकर स्वप्न वैभव का देखता दिल

हर शांत भंवर के बाद हमेशा कोई सैलाब आया है          
फिर तो यह अवसर होगा विप्लव ने हमें बुलाया है

न तुम विद्रोह दबा ह्रदय में ऐसे अत्याचार सहो.
रणभेरी के बिगुल से पहले कास कमर तैयार रहो

आँसुओ कि बहती झड़ी से ह्रदय कि आग ना बुझने पाए
निर्णय लेकर चलो अभी कहीं विलम्ब न हो जाये

जंग लगी कटार ही सही जंगी हो मैदान जहाँ
शंखनाद कि बेला में नवयुग हो तैयार तैयार यहाँ

अब जलजला उठने लगा है युवाओं के आतुर मन में
ज्वाला क्रांती कि धधक उठी है उपेक्षित शोषित जन जन में

उस उददेश्य को पूर्ण करो जिसकी खातिर जन्म लिया
लज्जा न हो माता को फिर कैसे कपूत को जन्म दिया ...
                                                देवेश तिवारी

Tuesday, March 1, 2011

चले थे कहा से हमें जाना कहाँ था - देवेश तिवारी


कल तक माँ माँ होती थी पिता पिता हुआ करते थे
अब माँ ममी हो गई पिता डैड हो गए
पश्चिमी चकाचौंध में हम इतने खो गये
अपने सामाजिक मूल्यों को दबाकर नीचे सो गए

चले थे कहा से हमें जाना कहाँ था
मुझे नहीं लगता हमें आना यहाँ था

माँ कि ममता कल तक हमको शीतल लगती थी
बूढी  माँ कि वाही ममता अब उलझन लगती है
आधुनिकता कि चकाचौंध में ममता तिल तिल जलती है
माँ तेरे यह झरते आँसू किसकी गलती है

कल तक पिता का पसीना खून हुआ करता था
अब अपनी कुटिल पत्नी कि खातिर वाही खून जलाते हैं
पिता के पुण्य भवन को तोड़कर अब हाटल बनवाते हैं
पिता के अरमानों को रौंद हम औहदा दिखलाते हैं

कल दान धर्म और परोपकार से पुण्य किये जाते थे
अब भूखे पेट पर लत मरकर रोटी छीन लेते  हैं
निर्लज्जता कि दहलिज लांघकर कमाई नितदिन लेते हैं
पैमाने पर खड़े होकर सोचें मानवता को क्या देते हैं

कल तक कफन कि खातिर लोग खुद बिक जाया करते थे
अब दफनाए शव के गहने उखाड़  ले जाते हैं
दुखी दरिद्र सताए दिल पर हजार जख्म दे जाते हैं
परहित धर्म को गिरवी रखकर क्या उधार ले जाते हैं


होती थी लक्ष्मी पास तो तीर्थाटन को जाते थे
अब जब लक्ष्मी आती है तो डांस बार में जाते हैं
बाप बेटे साथ बैठकर जाम से जाम छलकते हैं
भूल बिसर कर मर्यादा हम जेंटलमैन बन जाते हैं
       चले थे कहा से हमें जाना कहाँ था
       मुझे नहीं लगता हमें आना यहाँ था
                                         देवेश तिवारी

Friday, February 25, 2011

माँ मुझे भूख लगी है - देवेश तिवारी

माँ मुझे भूख लगी है                        

दौड़ता रहा माँ भागता रहा माँ
गरीबी की पीड़ा को भाँपता रहा माँ
बेरहम दुनिया ने मुझे बहुत सताया
अब थककर माँ मै तेरे पास आया             कुछ खाने को दे माँ, मुझे भूख लगी है

जो अपने थे कल तक अब पराये हैं माँ
दहलिज पर काँटे बिछाये हैं माँ
जहाँ भी गया मुझे सब ने ठुकराया
मन हारकर माँ मै तेरे पास आया
                     कुछ खाने को दे माँ, मुझे भूख लगी है
वो देख माँ रोटी कुत्ते भी खा रहे हैं
परोपकारी संसार को कैसे मुँह चिढ़ा रहे हैं
जो पेट ना होता तो ये भूख भी ना होती
न माँ तू मेरे सिराने पर यूँ रोती
                    कुछ खाने को दे माँ, मुझे भूख लगी है
मुझे लगा तह माँ मै अकेला रो रहा हूँ
पर तेरी आँखों में भी मै आँसू देख रहा हूँ
तू चुप हो जा माँ मै रोटी खोज कर लाऊंगा
तू हाथ नहीं फैलाना माँ मै जीते जी मर जाऊंगा
                    तू चुप हो जा माँ, मेरी भूख मर चुकी है -

Friday, February 18, 2011

(( “ देश के लुटेरे ” )) नई फ़िल्म - देवेश तिवारी


(( देश के लुटेरे )) आपने समुन्दर के लुटेरे फ़िल्म जरुर देखी होगी नहीं भी देखा है तो कोई बात नहीं मैंने एक फ़िल्म बनाने कि सोची है ये जरुर देखिएगा .. इस फ़िल्म के लुटेरों कि खास बात ये है कि ये अपने ही जहाज को लुटते हैं इसमें तीन लुटेरे हैं वैसे तो लाखो लुटेरे हैं | लेकिन तीन ही मुख्य हैं इसमें एक किरदार अहम है मगनमोहन उसकी बिल्ली का नाम गठबंधन है यह लुटेरों के जहाज का सेनापति है, जो खुद लुट में खुद शामिल नहीं होता लेकिन चूँकि ये सेनापति है और इसने लुटेरों के साथ गठबंधन किया है इसलिए ये खामोश रहता है | ये कभी हाई स्कुल का छात्र बन जाता है कभी अपनी मजबुरी का बहाना बना कर बच निकलता है अपने जहाज को लुटता देख मगनमोहन बड़ी निर्लज्जता से हस्त भी है | इनका  जहाज पर कभी महंगाई के बारिश में फँस जाता  है तो ये कहते हैं कि हमारे पास इससे बचने कि कोई अलादीन का चिराग नहीं है जो बड़ी सी छतरी बना दे | ये बारिश पर काबू पा लेने कि बात तो करते हैं लेकिन जिन लोगों ने इनके जहाज को बनाया है वे बड़े ही निकम्मे और बेवकूफ लोग हैं कभी कभार तो जहाज बनाते हैं वो भी  शराब , साडी , या किसी दूसरे लालच में | इस कहानी का अंत कभी नहीं होता ये भ्रष्टाचार के लहरों  में तैरते रहते  हैं और खजाना लुटते रहते हैं हा जो मगनमोहन है उसके सेनापति बनने में उसकी बिल्ली गठबंधन का बहुत बड़ा हाथ है वो दूसरे लोगों को मनाने का कम करती है इस फ़िल्म में एक किरदार है झलमाडी जो समुन्दर में खेल प्रतियोगिता कराता है और अपने ही जहाज का पैसा लुट लेता है , एक किरदार है ए माजा ये लोगों को फोन बाटने का काम करता है और खजाना लुट लेता है और एक किरदार है शोक चंडाल, ये अपने सिपाहियों के लिए घर बनाता है और खुद हड़प लेता है मगनमोहन इनको कभी कभार छोटी मोटी सजा भी देता है इन सबके पीछे है मास्टर माइंड तानिया ये तानिया मगनमोहन कि भी बॉस है उसके इशारे पर जहाज चलता है ऐसा बताया जाता है कि उसके पुरखों ने जहाज को बनाने में बड़ी मेहनत की थी ये जहाज टाइटेनिक भी नहीं है जो ग्लेशियर से टकराकर डूब जाए | अरे मैंने तो आपको जहाज का नाम ही नहीं बताया जहाज का नाम है भारत हा इस फ़िल्म के दर्शको का मैंने अनुमान लगाया है जो कभी कभार तालियाँ बजाते हैं बाकि समय हाथ पर हाथ धरे देखते रहते हैं ..........  - देवेश तिवारी

Tuesday, February 15, 2011

छत्तीसगढ़ की माटी पर हमको है अभीमान

छत्तीसगढ़ की माटी पर हमको है अभीमान

दण्डकारण्य नाम था जिसका वह पावन यह धाम है                       
इस माटी पर आए इक दिन स्वयं राम भगवान हैं
रामगढ़ और शिवरीनारायण सब इसके पहचान हैं
इतीहासों की जननी कुटुमसर छत्तीसगढ की जान है
          
            छत्तीसगढ़ की माटी पर हमको है अभीमान
            छत्तीसगढ की पुण्य भूमी है सब तिर्थों से महान

महानदी और पैरी जिस पर बहते दिन और रात हैं
इंद्रावती की कलकल हर पल चित्रकुट क्या बात है
बांगो खुड़िया खुंटाघाट यहां पर यहां नहरों का जाल है
शिवनाथ हसदेव का जल है पावन अरपा नदी विशाल है 
            
            छत्तीसगढ़ की माटी पर हमको है अभीमान
             छत्तीसगढ की पुण्य भूमी है सब तिर्थों से महान

बोली यहां है आदीवासी सरल है हल्बी और माड़ीया
पुरे राज के मुख में बसता मधुर मीठा सा छत्तीसगढ़ीया
करमा ददरीया और पंडवानी इनकी तो है बात निराली
सुआ नाचा गम्मत गेंड़ी त्योहारो में भोजली हरेली
          
            छत्तीसगढ़ की माटी पर हमको है अभीमान                                 
            छत्तीसगढ की पुण्य भूमी है सब तिर्थों से महान

चंद्रपुर में चंद्रहासिनी रतनपुर महामाया  का सुन लो नाम
बमलेंश्वरी देवी है दयालु दन्तेश्वरी का पावन धाम
साहस का प्रतिक वन भैंसा बस्तर का जंगल घनघोर
उंचे उंचे पर्वत के टीले सुनो पहाड़ मैना की तान चंहुओर 
           
                  छत्तीसगढ़ की माटी पर हमको है अभीमान
                  छत्तीसगढ की पुण्य भूमी है सब तिर्थों से महान

लौह अयस्क में अग्रणी राज्य है बाक्साईड की यहां है खान
बिजली उत्पादक यहां है कोरबा छत्तीसगढ का बढ़ा है मान
उद्योगों में बढ़ता राज्य यहां स्टिल उगाया जाता जाता है
विकासशील राज्यों की सुची में  यह सर्वश्रेष्ठ कहलाता है
           
             छत्तीसगढ़ की माटी पर हमको है अभीमान
             छत्तीसगढ की पुण्य भूमी है सब तिर्थों से महान

छत्तीसगढीयों ने सदा माता को रक्त पुष्प का भेंट चढ़ाया
विश्वसनीय छत्तीसगढ नारा देकर मुखिया ने भी मान बढ़ाया
दस वर्षों का बालक छत्तीसगढ अब विश्व में जाना जाता है
विकास करता अनुपम राज्य यह  नए किर्तीमान बनाता है
           
            छत्तीसगढ़ की माटी पर हमको है अभीमान
            छत्तीसगढ की पुण्य भूमी है सब तिर्थों से महान
                                                                                        देवेश तिवारी ...........

Sunday, February 6, 2011

क्या हो रहा है - देवेश तिवारी


धधक धधक कर जलती सड़कें गली गली में लाशें हैं
जोंक बना सरकारी तंत्र सभी खून के प्यासे हैं

सांसद के गलियारों में मुद्दा महंगाई का छाया है
और प्रधानमंत्री जी ने प्याजी बड़ा बनवाया है
यूपी कि जो बात करें तो अपराधों कि माया है
देख दशा दयनीय देश कि आज गला भर आया है

सरकारी खजाने कि तिजोरी पर कैसे डाके पड़ जाते हैं
घोटालेबाज नापाक दरिंदे सीढी सांसद कि चढ जाते हैं
कितने ही गरीब देश के रोज भुख  से मर जाते हैं
और लाखो तन अनाज गोदामो में पड़े-पड़े सड़ जाते हैं

सुरक्षा कि क्या बात सुनाये रक्षक भक्षक बन बैठे हैं
जिम्मेदार सभी नुमाइंदे अजगर बन कर ऐठें हैं
त्राहिमाम कि उठ रही आवाजें दबे कुचलों कि आहों में
मीडिया अदालतें जाँच एजेंसियां हुक्मरानों कि बाँहों में

बेखौफ आतंकी देश  मे खुनी कोहराम मचाते हैं
लड़ते हुए करकरे सालस्कर बली वेदी चढ जाते हैं
वीरों कि विधवाओं को हम मुआवजा दे फुसलाते हैं
और अफजल कसाब को जेलों में बिरयानी पहुंचाते हैं

तिरंगा फहराने कि नहीं आजादी अब लाल चौक कश्मीर में
क्या अब लालिमा घटने लगी है लाल किले कि प्राचीर में
बेगैरत हो रहे जन प्रतिनिधि भाग  रहे  जिम्मेदारी  से
लाशों का ढेर लग गया उद्योगपतियों कि लापरवाही से 

देवेश तिवारी

Saturday, January 8, 2011

सपनों की फिल्म - संज्ञा जी ................




हर मन में बसे होते हैं सपने, हर रात में हमारी आँखों में बसते हैं सपने। लेकिन आज चलिये सब कुछ भूलकर आपको हम ऐसी रूमानी दुनिया में जाएँ जिसे हम सपनों की दुनिया कहते हैं....ख्वाबों की दुनिया कहते हैं... जहाँ न कुछ खोने को रहता है न कुछ पाने को। तो चलिये सपनों की सतरंगी दुनिया में चलें।



स्वप्न और स्वप्नावस्था से हम सभी कुछ समय के लिये वशीभूत से हो जाते हैं। दूसरी मज़ेदार बात ये है कि सपनों की फिल्म के हम स्वयं दर्शक और अभिनेता दोनों होते हैं। कभी कभी बड़ा आश्चर्य होता है कि जो घटनाएँ हमारे साथ कभी भूत या भविष्य में घटित नहीं हुई होती हैं वे भी हमें सपनों में दीखती हैं। हमारी सोच से भी अलग। शायद ऐसा इसलिये होता है कि कल्पना पर आधारित होने पर भी सपने स्पष्ट, भावनामय और नियंत्रण से परे होते हैं। वे प्रतिदिन के जीवन की तरह वास्तविक न होते हुए भी कभी कभी विचित्र रूप से वास्तविक व सच सिद्ध होते हैं। कहते हैं कि अधिकतर सपने अपने में कुछ न कुछ सार्थक बातें या अर्थ छिपाए रहते हैं। सपनों में अपने प्रियजनों, दुश्मनों किसी घटना या दुर्घटना, किसी की मृत्यु ऐसे न जाने कितने अच्छे-बुरे, सुखद या दुखद सपने हमें दिखाई देते हैं। सुखद सपनों की अनुभूति कुछ और ही होती है जिसे सिर्फ उस पल महसूस किया जा सकता है, वहीं दुर्घटना, मृत्यु या डरावने सपनों से हम सिहर से जाते हैं। ऐसे ही रंगबिरंगे सपने जो जीवन के उजियारे हैं जो तनहाई के सहारे हैं जो कभी सच और कभी झूठे होते हैं। ये हमारे बस की बात तो है नहीं कि हम मनचाहे सपनों का सौदा कर सकें।
अंधियारे के ये मोती जो भोर होते ही टूट जाते हैं आखिर क्यूं आते हैं हमारी नींदों में खलल डालने। आप भी सोचते हैं ना कि आखिर क्यों दीखते हैं हमें सपने। मनोवैज्ञानिक पहलू कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति बिना सपना देखे एक भी पल नहीं सोता। जागृत स्थिति में आँखें कुछ न कुछ देखती रहती हैं। मन में कई तरह के विचार और कल्पनाएँ घुमड़ते रहते हैं और न जाने कितने ही तरह के चित्र-विचित्र दृश्य दिखाते रहते हैं। नींद की अवस्था में सिर्फ हमारा शरीर सोता है और मन-मस्तिष्क के क्रियाकलाप, चिंतन, विचारो की कल्पनाओं की उड़ान चलती ही रहती है। मन-मस्तिष्क के यही क्रियाकलाप हमें सपनों के रूप में दिखाई देते हैं। सपने  बहुधा रचनात्मक होते हैं इसके प्रमाण आज भी मिलते हैं। कितने ही कवियों ने काव्य पंक्तियाँ सपनों में देखीं, लेखकों को कथानक मिले, संगीतकारों को सपनों में संगीत की लय सुनाई दी....इस तरह के कई प्रमाण हैं। एक प्रमाण अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध जानेमाने कवि सैमुअल टेलर कालरिज का है, जिन्होंने तीसरे पहर सोने के पहले अंतिम शब्द कहे थे, ‘‘यहाँ कुबला खान ने एक महल बनाने का आदेश दिया था’’, तीन घंठे की नींद के बाद जब वे जागे तो उनके मस्तिष्क में कविता की 300 पक्तियाँ अंकित थीं और जागते ही उन्होंने कुबला खान नामक ये प्रसिद्ध कविता लिखनी शुरू कर दी। उन्होंने सिर्फ 54 पंक्तियाँ ही लिखी थीं कि उनके घर में कोई मिलने वाला आ गया। एक घंटे बाद जब वो गया और वे फिर से लिखने बैठे तो सारी कविता उनके दिमाग से लुप्त हो गई थी और लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें आगे की पंक्तियां याद नहीं आईं।

कभी कभी हम सभी के साथ ऐसा ही होता है कि आँख खुली या सुबह उठे तो हम सपना भूल चुके होते हैं मगर तकलीफ तो तब होती है जब हम कोई सुखद सपना हम भूल जाएँ।
सुख दुख देने को आता है, सपने मिटने को बनते हैं।
आने-जाने, बनने-मिटने का ही नाम जगत ये सुंदर।
अरे क्या हुआ यदि तेरा सुख,
स्वप्न, स्वर्ग ढह गया अचानक।
करने को निर्माण मगर, जग में वीरान अभी बाकी है।
स्वप्न मिटे सब लेकिन
सपनों का अभिमान अभी बाकी है।
जगाने, चुटकियाँ लेने, सताने कौन आता है,
                                                                                    ये छुपकर ख़्वाब में अल्लाह जाने कौन आता है।
सपने टेलीपैथी के रूप में संदेशवाहक का भी कार्य करते हैं। सपने भविष्यसूचक होते हैं। कभी कभी सपने हमें अपनी भविष्यवाणी से घबरा भी देते हैं। प्रायः मौत संबंधी सपने ऐसे ही होते हैं। इस तरह के अनेक सपने हैं जो सच हुए। नेपोलियन वाटरलू का युद्ध हार गए थे और इस युद्ध के ठीक पहले उन्होंने एक सपना देखा था कि एक काली बिल्ली उनकी सेना के बीच एक एक करके सभी दोस्तों के बीच घुस रही है। इस तरह की कई घटनाएँ हैं जिनमें लोगों ने सपने द्वारा  किसी सुदूर स्थान में घट रही घटनाओं का आभास प्राप्त किया और हजारों मील दूर स्थित अपने प्रियजनों के हाल जाने। इस तरह के सैकड़ों प्रयोग अब विश्वविख्यात हो चुके हैं जिनकी वैज्ञानिक पुष्टि कियक जाने के बाद उन्हें सही भी पाया गया। पूर्वाभास कराने वाले सपनों को वैज्ञानिक अतेन्द्रिय सपने कहते हैं और विज्ञान ऐसे सपनों को दूसरे टाइम जोन, समानान्तर संसार या पृथक आयाम की संज्ञा देता है।
 नींद के आगोश में दीखने वाले सपने जो भले ही हमारे लिये साधारण हों या जिन्हें हम भूल जाना चाहते हैं या भूल जाते हैं, पर वैज्ञानिकों ने इन्हें साधारण नहीं समझा है। आइंस्टीन ने जब सापेक्षतावाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया और विश्व के रूप और उसकी क्रियाओं को गणित के आधार पर सिद्ध किया तब से विज्ञान जगत में ये चर्चा उठ खड़ी हुई कि भूतकाल की घटनाओं को फिर से असली रूप में देख जाना संभव है क्या? आइंस्टीन ने पहली बार इस संदर्भ में एक नवीन तथ्य प्रतिपादित किया कि घटनाक्रम भले ही समाप्त हो चुके हों पर उनकी तरंगें विश्व ब्रम्हांड में फिर भी रहती हैं। आउटर टेन नामक अपने ग्रंथ में बुल्क लिखते हैं कि भूत और भविष्य के सपने उतने स्पष्ट नहीं होते क्योंकि ये अति सूक्ष्म अवस्था में रहते हैं जो हमारी स्थूल आँखों की जीवन सीमा से परे होता है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कठपुतली के नृत्य में पुतलों से बँधे धागों के न दीखने से दर्शकों को ये भ्रम हो जाता है कि निर्जीव काठ के पुतले अपने आप ही नाच रहे हों। पतंग का धागा पतंगबाज़ के हाथों में होता है, पर दूर से देखने पर पतंग निराधार उड़ती हुई दिखाई देती है। यही बात भूत और भविष्य की है। मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक दोनों ही ये मानते हैं कि सपने यथार्थ की अभिव्यक्ति करा सकते हैं।
ख़ैर ये तो रही भूत और भविष्य की बातें....फिलहाल वर्तमान की बातें करें आखिर सपने तो सपने ही होते हैं....नींद खुली और टूट गए। नीरज ने सपनों के बारे में लिखा है.....
कुछ नहीं ख्वाब था सिर्फ एक रंगीनी का,
धरती की ठोकर खाते ही जो टूट गया।
मैं अमृत भरा समझे था स्वर्ण कलश जिसका,
कुछ नहीं एक विषघट था गिरकर फूट गया।
सपनों का ये सफर तो हम यहीं ख़तम कर रहे हैं, सपने तो सपने होते हैं पर इन सपनों को जागी आँखों से देखने पर, हिम्मत संजोकर पूरा कर लें तो सपनों की दुनिया को हकीकत की दुनिया में हम स्वयं ही बदल सकते हैं। बस इतना ज़रूर कहेंगे कि अगर आपने जागी आँखें से कोई सपना देखा है तो उसे पूरा करने के लिये तुरंत जुट जाइये.....हमारी दुआएँ आपके साथ हैं।   साभार : संज्ञा जी..http://cgswar.blogspot.com/...........