Sunday, September 22, 2013

गणपती पंडाल की भक्ति बदले बदले रंग, आस्था अपनी जगह कायम : देवेश तिवारी

गणपती पंडाल की भक्ति बदले बदले रंग, आस्था अपनी जगह कायम : देवेश तिवारी 

बीते ​20 सालों में गणेश पूजा के तौर तरिकों मुर्तियों के साथ साथ..गणेश पूजा पर्व मनाने के तौर तरिकों में भारी बदलाव आया है। मुंबई में युवति के साथ लड़कों की बदसलुकी के बाद इस पर गौर करना भी जरूरी हो गया है कि धार्मीक आस्था के नाम पर जब भीड़ बढ़ती है और भीड़ के साथ जो उन्माद पनता है यदि इसमें शराब का तड़का लग जाए तो इसके परिणाम घातक होंगे।
सबसे पहले भगवान गणेश की सार्वजनिक पूजा की शुरूआत 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में की। 100 साल पहले की बात की जाए तो गणेश पूजा का पंडाल अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति और साजिश रचने की पवित्र जगह थी।
2000 के दौर में बदलाव आया पंडालों की संख्या बढ़ी और गली मोहल्लों में बच्चों के जिद और मोहल्लों की एकता के नाम पर सार्व​जनिक गणेशोत्सव के रसीद छपे छपाए बाजार में मिलने लगे। कई मोहल्लों में गणेश के पंडाल पर हमने अपनी आंखो से क्रिकेट और ब्लू फिल्म की सीडी चलते देखा है।
रात होते ही जब मोहल्ला सोने निकलता है तो गणेश के पंडालों में भगवान का चेहरा ढककर, गांजा शराब सिगरेट से लेकर क्या क्या नहीं होता। गणेश उत्सवों से सार्वजनिक शब्द के मायने निकलने लगे। जाति, पारा और मोहल्लों की सिमाओं ने पंडालों को छोटा कर अलग अलग बना दिया। मुर्तिकारों की रोजी रोटी के लिहाज से यह अच्छा रहा, लेकिन इसका नुकसान भी हुआ।
गणेश विर्सजन पर लगने वाली जाम पर कुछ​ लिखने से हो सकता है मातमी जूलूस और संदल चादर की रैली पर उंगली नहीं उठाने का आरोप लिखने वाले पर मढ़ा जा सकता है। लेकिन जनता को होने वाली समस्या की कसौटी पर सभी धर्म एक से हैं।
देर रात तक शोर शराबा और बुढ़ों बच्चों की समस्या, किर्तन मंडलीयों की जगह धुमाल पार्टीयों ने ले ली। सायकल में बंधी बैटरी की जगह फटफटीया जनरेटर आ गए। और एक की जगह चोंगे की संख्या 48 पर पंहुच गई। सबकुछ बदल गया। राजनीति को देंवताओं से दूर रखना कैसे संभव है जब देश की नसों में राजनीति के हिमोग्लोबीन घुस चुके हों। पंडालों के खर्च का बढ़ा हिस्सा और लाखों का खर्च भ्रष्ट मंत्रीयों के घर से आता है। और एक दिन वही सफेद कुर्ता वाले साहब पंडाल में आरती गाने आते हैं। धर्म की आड़ में धार्मीक आस्था के पीछे नीयत उन्हीं को तालशाती है कि ​इसे मैनें गणेश में कितने का रसिद दिया था। जितने सिक्के उतने वोट।
प्यार हिन्दी सिनेमा के पर्दों से पंडालों में उतर आया। जय जय शिव शंकर में राजेश खन्ना और बिन्दु के डांस की तर्ज पर यहां भी वैसा ही है। मोहल्ले के सबसे हैंडसम लड़के विर्सजन के रोज लाल की बोतल चढ़ाते हैं।
माथे पर सफेद लाल की पट्टी..मां बाप की नजरों से दूर रहने का प्रयास और बाबा इलायची के चार पाउच मुंह में दबाकर दे डांस मारे..गाना भगवान का नहीं फरमाईशी..पार्टी आल नाईट ..गणेश विर्सजन में..निगाहों में बप्पा मोरिया नहीं दिल मांगे मोर.. कुछ वहशीयत में डूबी निगाहें और कुछ पवित्र प्रेम के पनाहगार दिल..विर्सजन रैली में महबूबा को तालश करते हैं। दिख गई तो डांस का रोमांच कई गुना। गलती से किसी ने धक्का लगा दिया तो बात इज्जत पे..तत्काल कंट्रोवर्सी.. और बेकाबू भीड़ में लत्तम जुत्तम पवित्रम..तो ये कहानी है बप्पा मोरीया की|
इसके बाद भी हर दिल में गणेश हैं। उनके असल भक्त  उनकी सेवा में लगे हैं। नकारात्मकता के साथ भी मुर्तिकारों की सृजनात्मकता का कोई जवाब नहीं। पूजा होती रहेगी। हिन्दु धर्म के बड़े त्योहारों में गजराज का राज चलता रहेगा। जरूरत महसूस हो तो उन्माद की जगह शालिनता आए। और महंगे हो रहे पंडलों और राजनीतिकरण से बप्पा दूर हो कर गरीब भक्त की कुटिया में विराजें..विघ्नहर्ता विघ्न हरने आते हैं। पप्पा विदा हो गए अगले बरस जल्दी आने का वादा करके..पप्पा हर बार सोंचता हूं अगली बार भक्तों के लिए कुछ नया और थोड़ा बुद्धि लेकर आना..​जो जिस रूप में चाहे वैसे ही नजर आना कभी अन्ना बनकर .. सिपाही बनकर..मेवा पराठा भुट्टा और कल्पनाशिलता के चरम पर जाकर आते रहना बप्पा। 

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