एक चेहरा अनेक चेहरा
चेहरों से झुण्ड बनता है
समूह झुण्ड का बढ़कर
आगे भीड़ स्वरूप का बनता है
भीड़ में सब अनजान ही है
इनमें कुछ हैवान भी हैं
कभी भीड़ भगवान भी है
मानो तो वरदान भी है
हम सब भीड़ ही हैं
तूफानों की नीड़ ही हैं
तूफान सैलाब जगाता है
भीड़ सैलाब बढाता है
भीड़ की न होती पहचान
न किसी को सगा तू जान
भीड़ के बीच अपना न साया
भीड़ में अपना भी पराया
एक भीड़ से आती क्रांती
एक भीड़ फैलाती भ्रांती
एक भीड़ उपहास कराता
एक भीड़ है शोक जगाता
बचकर भीड़ से अकेले चलना
तेज हवाओं में भी जलना
भीड़ में चाहो गुमनाम हो जाओ
या चलकर अकेले नई राह बनाओ.......l
-देवेश तिवारी
No comments:
Post a Comment