Wednesday, February 10, 2016

कोई जनाधार नहीं, हर नेता धनाधार वाला : देवेश तिवारी अमोरा


वो दौर रहा होगा जब छत्तीसगढ़ में जब गांधी, नेहरू, गांधी नेहरू परिवार अटल—आडवानी जी विदयाचरण शुक्ल या दिलिप सिंह जूदेव को देखने या सुनने वाले लोग स्वमेव भीड़ की शक्ल में किसी मैदान में जुटते होंगे। मगर बिते कुछ दस एक सालों में राजनीति या राजनीति में खुद की सहभागिता को तलाशने वाले लोगों का मिजाज बदला है या कहें नोकिया 5110 से आईफोन 6 एस तक के बदलाव ने नेताओं के पीछे भागने वाले लोगों को बदल दिया है।
आज प्रदेश में हर एक नेता का यही गुरूर है कि उनके पास जनाधार है..मगर असल मायने में इस भारी बीजी हंव.. अबड़ टेंसन हे.. वाले दौर में किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं कि किसी का भाषण सुनने जाए.. हमने अटल जी आडवानी या इंदिरा गांधी का दौर नहीं देखा। इसलिए शायद यह मान भी लें कि इनके आने की सूचना पाकर लोग दौड़े चले आते भी होंगे इन्हें देखने या सुनने।
आज की मौजूदा राजनीति का मजनून कहता है कि, चाहे प्रदेश में मोदी—राहुल हों, रमन सिंह— अजीत जोगी या भूपेश बघेल किसी के भीतर ऐसी कोई करिश्माई ताकत नहीं है जो भीड़ को स्वमेव इकट्ठा कर सके। अब कोई खूबचंद बघेल नहीं है न नियोगी की तरह किसी में करिश्माई नेतृृत्व का गुण है जो आम लोगों को अपने वाक शैली या अलग किस्म की साफगोई से घर की चौखट से मैदानों तक खींच लाए। किसी में ऐसी कला भी नहीं है जो निश्चित वर्ग के जनमत को प्रभावित कर पाए।
यदि जीत जाना ही जनाधार होता है तो विधानसभा की एस सीट बेदाग छवी एक पार्टी का सिंबल और कुछ करोड़ रूपए किसी को उस क्षेत्र का सबसे बड़ा जानाधार वाला नेता साबित करने के लिए काफी होगा। सिंघानिया और अग्रवाल्स के खर्चे के किस्से छत्तीसगढ़ की राजनीति में सुनाए भी जाते हैं। फिर भी इनमें कोई करिश्मा नहीं है जो भीड़ को खींच लाए। दरअसल मोदी की सभा हो या रमन सिंह की भीड़ में सरपंच ही पंचायत के पैसे से भीड़ की व्यवस्था करते हैं, एक दिन के भीतर आंगनबाड़ीयों के माध्यम से वन स्टॉप सेंटर में हजारों की भीड़ आ जाती है। कांग्रेस नेताओं के कार्यकर्ता और पद लोलुपता भी कुछ इसी तरह भीड़ की व्यवस्था करती है। अजीत जोगी के कट्टर समर्थक भी इसी अंदाज में भीड़ जुटाते हैं और उपरके एंगल से आखीरी पंक्ती के शक्स के बांह भर फोटो भीड़ के नाम पर वाट्सएप्प पर तैरने लगती है। हां इनमें से कुछ नेताओं को जनाधार की बजाय कार्यकर्ताधार नेता कहना कहीं बेहतर चयन हो सकता है।
जनाधार का राग अलापने वाले कई धुरंधर कई क्षेत्रों में पराजित भी होते रहे हैं इनमें शहरी और ग्रामीण क्षेत्र भी शामिल हैं। बेहतर चुनाव प्रबंधन और विपक्षी दल के पार्षदों को पोषित करने के बूते कई विधायक शहरी इलाकों में चुनावी जनाधार वाले नेता भी बने हुए हैं। मगर जनता के मुददों को तरजीह देने वाला या उन्हें अपनी धुन में बांधने वाले नेताओं की कमी सी हो गई है। जो पहले मुख्यमंत्री रह चुके हैं या मौजूदा दौर में हैं उन्हें अपने कार्यकर्ताधार होने पर खुशी जरूर होती है। मगर राजनीति का यह अटल सत्य भी है कि, जब आप मुख्मंत्री होते या हो लेते हैं तो आप गुड़ हो जाते हैं और मक्ख्यिां गुड़ पर टिपटती ही हैं। अपनी खास जीवन शैली और तेजतर्रार रूतबे की बदौलत, दिलिप सिंह जूदेव और वीसी शुक्ला ने खासी लोकप्रियता जरूर पाई।
आज के दौर में गांधी भी होते तो लोगों को स्मार्टफोन के मोह और खुद में रमे होने, मोला काए करना है की मानसीकता वाली चारदिवारी से लोगों को मैदान तक खींच लाने में फेल ही होते। इसके पीछे वजह नेताओं और नेताओं की बयानी का टीवी, अखबार रेडियो या वाटसएप के जरिए बिजली की तरह फैलना भी है।
तो मियां मुगालता किस बात का कि जनाधार आपके साथ है, होता होगा कभी वक्त वक्त की बात है। ..