Wednesday, April 4, 2012

देंवताओं का फ्लैक्सीकरण

सबसे बड़ा धर्म मानवता का, सांई बाबा भी कहते थे, मानवता मतलब किसी मानव को पीड़ा न हो। होता पूरा उलट है, हर गुरूवार भक्तों की बढ़ती तादात और सड़क के बीचो—बीच निजी स्वार्थ से बनाए गए मंदिरों के कारण पूरा रास्ता जाम हो जाता है। एंबुलेंस निकलने की जगह भी नहीं होती तो मानवता भूल ही जाइए।
सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक जगह पर किसी भी तरह के मंदिर निर्माण पर पूरी तरह रोक लगा रखी है। इसके बाद भी इसे श्रद्धालुओं की भक्ती कहिए या दो कदम चलने में कामचोरी घर के पास वाले चौक पर ही पर्सनल मंदिर बनवाना है।
मंदिर भी बन गया, यहां तक ठीक, अब दान पेटी में अनाप शनाब चंदा आसपास फूल वाले, चप्पल स्टैंड,सायकल स्टैण्ड अगरबत्ती, नारियल की दुकान से लोगों को खासा रोजगार भी मिलता है लेकिन दुकान लगाने की परमीशन इस शर्त पर की जहां दुकान लगाया जा रहा है उस जगह के लिए रेंट देना होगा, गलत मत समझिए यह दुकानदार की स्वेच्छा से नहीं उन्हें स्थापीत करने वाले भक्तों की स्वेच्छा से देना होगा।
इन सबसे इतर बात दरअसल जो कहना चाहता हूं वह यह कि, देंवताओं के नाम पर हर चौक चौराहे मोहल्ले में तन गए फ्लैक्स। इसमें जितनी बड़ी नेताओं और प्रसाद वितरण के आर्गनाइजरों की फोटु होती है। उसका एक तिहाई छोटा सा भाग भगवान के लिए आरक्षित कर दिया जाता है। आर्गनाइजरों की विशालकाय हांथजोड़कर माथे में तिलक रंगी लाल सफेद तिनरंगी गमझे वाली फोटु। यह कुछ दिनों तक चिपके रहने के बाद फटकर लोगों के पैरो तले रौंदाए किसे परवाह। फ्लैक्स के निचे फलां पर्व की शुभकामनांए। हद तो तब हो गई जब हमारे बिलासपुर के एक नगर पंचायत के नेता ने चुनाव जितते ही सांई बाबा की भक्ती को भुनाने मंदिर निर्माण से लेकर पालकी यात्रा का प्रबंध कर दिया।
देश में आस्था के नाम पर राजनीति पहली बार नहीं। भगवान श्री राम को तो कुछ ने खुब फुटकर कराया है। बात महल भक्ति तक सीमित हो तो भी अच्छा था। इनकी आड़ में अपनी पब्लीसिटी का जो जाल फैलाया है यह घातक है। देंवताओं की भक्ति भारत में आम बात है उसका श्रेय लेने के लिए मची होड़ से आपत्ति है।
ईश्वर अपने भक्तों को सदबुद्धी दो कि आपका नाम लें, और लोगों को प्रेरणां भी दें, लेकिन आपके नाम पर अपनी पहचान बनाने का पब्लीसिटी गेम कहां तक जायज है।
सबसे बड़ा धर्म मानवता का, सांई बाबा भी कहते थे, मानवता मतलब किसी मानव को पीड़ा न हो। होता पूरा उलट है, हर गुरूवार भक्तों की बढ़ती तादात और सड़क के बीचो—बीच निजी स्वार्थ से बनाए गए मंदिरों के कारण पूरा रास्ता जाम हो जाता है। एंबुलेंस निकलने की जगह भी नहीं होती तो मानवता भूल ही जाइए।
सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक जगह पर किसी भी तरह के मंदिर निर्माण पर पूरी तरह रोक लगा रखी है। इसके बाद भी इसे श्रद्धालुओं की भक्ती कहिए या दो कदम चलने में कामचोरी घर के पास वाले चौक पर ही पर्सनल मंदिर बनवाना है।
मंदिर भी बन गया, यहां तक ठीक, अब दान पेटी में अनाप शनाब चंदा आसपास फूल वाले, चप्पल स्टैंड,सायकल स्टैण्ड अगरबत्ती, नारियल की दुकान से लोगों को खासा रोजगार भी मिलता है लेकिन दुकान लगाने की परमीशन इस शर्त पर की जहां दुकान लगाया जा रहा है उस जगह के लिए रेंट देना होगा, गलत मत समझिए यह दुकानदार की स्वेच्छा से नहीं उन्हें स्थापीत करने वाले भक्तों की स्वेच्छा से देना होगा।
इन सबसे इतर बात दरअसल जो कहना चाहता हूं वह यह कि, देंवताओं के नाम पर हर चौक चौराहे मोहल्ले में तन गए फ्लैक्स। इसमें जितनी बड़ी नेताओं और प्रसाद वितरण के आर्गनाइजरों की फोटु होती है। उसका एक तिहाई छोटा सा भाग भगवान के लिए आरक्षित कर दिया जाता है। आर्गनाइजरों की विशालकाय हांथजोड़कर माथे में तिलक रंगी लाल सफेद तिनरंगी गमझे वाली फोटु। यह कुछ दिनों तक चिपके रहने के बाद फटकर लोगों के पैरो तले रौंदाए किसे परवाह। फ्लैक्स के निचे फलां पर्व की शुभकामनांए। हद तो तब हो गई जब हमारे बिलासपुर के एक नगर पंचायत के नेता ने चुनाव जितते ही सांई बाबा की भक्ती को भुनाने मंदिर निर्माण से लेकर पालकी यात्रा का प्रबंध कर दिया।
देश में आस्था के नाम पर राजनीति पहली बार नहीं। भगवान श्री राम को तो कुछ ने खुब फुटकर कराया है। बात महल भक्ति तक सीमित हो तो भी अच्छा था। इनकी आड़ में अपनी पब्लीसिटी का जो जाल फैलाया है यह घातक है। देंवताओं की भक्ति भारत में आम बात है उसका श्रेय लेने के लिए मची होड़ से आपत्ति है।
ईश्वर अपने भक्तों को सदबुद्धी दो कि आपका नाम लें, और लोगों को प्रेरणां भी दें, लेकिन आपके नाम पर अपनी पहचान बनाने का पब्लीसिटी गेम कहां तक जायज है।

पहले तो देंवताओं और उनके भक्तों से लिखने की हिमाकत के लिए क्षमादेंवताओं का फ्लैक्सीकरण, हां सच है। सड़क चलते तमाम फ्लैक्स सांई बाबा, दुर्गामाता, शंकर भगवान, जब जिनकी डिमांड तब वैसी फोटो। उनकी ही फोटो होती तो बात न थी । साथ में फ्लैक्स बनवाने वाले की पुरी जन्म पत्री। बात श्री सांई बाबा के नाम पर प्रसाद बंटवाने तक होती तो पुण्य की बात थी। लेकिन पुरे आसपास के माहौल का जो फ्लैक्सीकरण किया जाता है शिकायत इससे है।

तशरीफ टिका ही लिजीए

तशरीफ टिका ही लिजीए, आईपीएल आ गया है। ऐसे आप दिनभर इतने बीजी रहते है। कि आपको तशरीफ टिकाने का मौका ही नहीं मिल पाता। लिजिए आपके सारे काम, घर की जिम्मेदारियां, आफिस के फाईल निपटाने,देश की जिम्मेदारियों को निपटाने का सारा जिम्मा आईपीएल ने लेलिया। इसलिए सारे काम छोड़कर आप आराम से बस के उपर, टायर में, कम्बोड पर, पेपर के बन्डल पर, वनस्पती के डिब्बे पर, साईकल के केरीयर पर कहीं भी अपनी तशरीफ टिकाकर मैच का मजा ले सकते हैं। और कुछ देखेंगे भी। बात मनोरंजन से भी आगे जा रही है। जब छोटे—छोटे बच्चों को पढ़ाई और खेलकूद से दूर कार्पोरेट मैच के इस घटिया फार्मेट के लिए उन्मादी और अति उत्साह में देखता हूं तो चिंता होती है। मैच किसका होगा, दो कार्पोरेट लाबियों का, लड़ेंगे कौन, दो राज्यों के नाम और उनकी अस्मिता। पहले पहल जब भारत पाकिस्तान के मैच होते थे, तब माहौल जीत या हार में हो हंगामा जैसा बिलकुल न था, लेकिन मीडिया के उकसावे और मैच को दुश्मनी की तरह देखने के नजरीये ने खेल को जंग का मैदान बना दिया। आलम यह है कि, अब मैच जितने पर जंग जितने की खुशी होने लगी है। ऐसा उन्माद यदि भारत के अलग अलग शहरों और राज्यों के बीच पनप गया तो, हालात कैसे होंगे यह सोंचना होगा। फिर आईपीएल ही हो रहा है ना, कोई समुद्र मंथन तो हो नहीं रहा, जहां से नौ रत्न या अमृत का घड़ा निकलने वाला हो। तो इस हर साल लगने वाले व्यापार मेले की तरह लगने वाले आईपीएल लिए ओवर एक्साईटेड होने की क्या जरूरत है। हमारे इस अतिउत्साह और घटीया कार्पोरेट मैच की आड़ में निलाम हो रहे खिलाड़ीयों को देखना हमें तो नहीं भाता। लोगों को इसका जबरीया फैन बनाकर फिर से सेंट, पीपरमेंट, साबुन तेल मसाला बेचने की तैयारी है। खेल देखना अब केवल मनोरंजन नहीं रहा शायद, क्रिकेट देखना मनोरंजन न रहकर कैसे बना आदत..पता ही नहीं चला ..खैर क्रिकेट प्रेमियों को हर चीज में छूट है ...