Wednesday, November 3, 2010

प्रसिद्धि का माध्यम नक्सलवाद

देवेश तिवारी 


नक्सलवाद आज देश के सामने बड़ी समस्या है और इससे निपटना सबसे बड़ी चुनौती। दरअसल नक्सलवाद, माओवादियों की नजरों में एक क्रांति है वर्तमान लोकतांत्रिय व्यवस्था के खिलाफ यह एक लड़ाई है। परन्तु  इसकी सच्चाई कुछ और ही है। जब बंगाल के कालीबाड़ी से कानु सान्याल और चारू मजुमदार ने पहली बार व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़कर नक्सलवाद की शुरूआत की थी तब नक्सलवाद का चेहरा इतना भयानक नहीं था।

हाल ही में हुए नक्सली हमलों से एक बात साफ दिखाई दे रही है कि माओवादी न केवल हमारे सुरक्षा बलों को नुकसान पंहुचा रहे हैं बल्कि अब वे निर्दोष लोगों की हत्या कर रहे हैं। हाल ही में हुए ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के दुर्घटना में नक्सलियों का संलिप्त होना, और राजनांदगांव में यात्री बस को उड़ाया जाना इसके साक्ष्य हैं ।  
 नक्सल प्रभावीत क्षेत्रों में आज कर्फ्यू सा माहौल है चारो ओर सुरक्षा बलों की तैनाती है एक तरफ सुरक्षा कर्मीयों की बन्दुकें हैं तो दुसरी तरफ नक्सलियों का डर, कुल मिलाकर बारूद के ढेर पर खड़े होकर  आदिवासी संगीनो के साये में जिन्दगी जीने को मजबुर हैं इतने बुरे हालात तो कभी दुश्मन देश की सीमा पर रहने वाले लोगों ने भी नहीं देखे होंगे । इस तरह की विषम परिस्थितियों से लड़ने की बजाय पुरे देश के नेता आज बस्तर को अखाड़ा समझ बैठे हैं और यहां होने वाली मौत के तांडव को एक खेल समझ कर इसका लुत्फ उठा रहे हैं।

आज राष्ट्रीय स्तर के कई नेता छत्तीसगढ़ के नक्सली समस्या के बारे में खुलकर बयान बाजी कर रहे हैं जबकि छत्तीसगढ़ से इनका नाता दो तीन दीन से ज्यादा का नहीं है पड़ोसी की विधवा को हर कोई भौजाई बनाता है और उस पर बुरी नजर डालता है ठीक यही स्थिति आज छत्तीसगढ़ की है यहां आज कोई भी नेता अपना प्रवास रख लेता है, कुछ तो बस्तर को आजादी के पहले का भारत समझकर सत्याग्रह यात्रा चलाते हैं।
सुरक्षा बलों से घिरे हुए एसी कार में बैठकर लोग प्रभावित क्षेत्र का दस से पंद्रह मिनट का दौरा करते हैं और वहां से लौटकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं तथा मीडिया की सुर्खियां बटोरते हैं। बड़े बड़े लेखक इन क्षेत्रोें की समस्याओं के बारे में समिक्षा देते हैं और प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं। तालाब के ठहरे हुए पानी को देखकर दलदल का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता । आज छत्तीसगढ़ एक ऐसा रंगमंच बन चुका है जिस पर खड़ा होकर हर कोई अपने आपको श्रेष्ठ बताने का और लोगों की सहानुभुती को भुनाने का प्रयत्न करता है। हर एक नक्सली हमले के बाद विपक्षी दल बरसाती मेंढ़क की तरह चिल्लाने लगतें है और जब जनता को यह एहसास हो जाता है कि फलां पार्टी को हमारी फिक्र है सारा ढ़ोंग ढकोसला बंद हो जाता है। आज हमले के तुरंत बाद सियासत का बाजार गर्म हो जाता है और जमकर बयानबाजियां की जाती है।
जिस हमले में शहिदों कि शहादत को सलाम करना होता है वहां इसे मौका समझकर इसे अपनी बात रखने का अवसर माना जाने लगा है। नक्सली हमले के तुरंत बाद आरोप प्रत्यारोप के शोरगुल के बीच शहीदों के परिजनों की सिसकियां कहीं खो जाती है। सत्ता की चाह रखने वाले दल खिसियानी बिल्ली की तरह मुद्दा नोचने लगते हैं निचले स्तर के नेता से शीर्ष तक के सभी नेता नक्सल समस्या को लेकर केवल प्रसिद्धि पाने के लिए पुतला दहन, शोक सभा, मौन रैली तक का आयोजन करते रहते हैं, यदि उनके अंदर सचमुच सहानुभुति है तो बजाय हो हंगामे के शहिदों के परिवारो  के लिए सहायता राशी क्यों नहीं जुटाने का कल्याण क्यों नहीं करते हैं। राज्य और केंद्र सरकार के बीच नक्सल समस्या को लेकर खींचतान जारी है ।




नक्सल समस्या से निपटने आज हमारा हर दांव खाली जाता दिखाई दे रहा है। ऐसे में केंद्र सरकार भी सेना के प्रयोग को लेकर संशय की स्थिति बनाए हुए है। राज्य केंद्र से सहयोग की आस लगाए हुए है वहीं केंद्र राज्य को अपने बल बढ़ाने की सलाह दे रहा है इन दोनों के चलो मामा चलो भांजा वाली स्थिति का लाभ नक्सली उठा रहे हैं और नित नये वारदातों को अंजाम देकर जवानों के खून से होली खेल रहे हैं । राज्य की सरकार जैसे ही नक्सलियों के खिलाफ कठोरता बरतने का प्रयास करती है वैसे ही मानवाधिकार आयोग के सदस्य इसे बर्बर हिंसा करार देते हैं । अब सरकार करे तो क्या करे लगातार बदलती विषम दशा की मुकदर्शक बनी रहे या लड़ाई में शहीदों की शहादत पर विपक्ष की आलोचना झेलती रहे । इससे पहले की राज्य की स्थिति हाथ से बाहर चली जाए इस पर लगाम लगाने की जरूरत है। यह किसी एक के चाहने से नहीं होगा। इसके लिए देश के हर एक राजनैतिक दल को गरम तवे में रोटी सेंकने की बजाय साथ मिलकर काम करना होगा ।
वैचारिक मतभेद एक आम बात है परन्तु हर वक्त मुखर विरोधी स्वर भी ओछी मानसिकता का प्रतिक हैै। धैर्य, बल, साहस, एकजुटता, जागरूकता और कुशल रणनिति के बल पर ही नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के बद्तर हालात पर काबु पाया जा सकता है यदि हम इस अभियान में सीधे सहयोग नहीं दे सकते तो कम से कम मौन रहकर इसे सहमती तो दे ही सकते हैं।